गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-8 : अध्याय 11
प्रवचन : 4
सारी रैन माने सारी रात - सम्पूर्ण जीवन। झुलाओ माने भगवान के साथ खेलो। खेल उनसे खेल रे मन! एक योग यह है। दूसरा योग कहाँ है? दसवें अध्याय में है - विभूति योग में। सातवें अध्याय के अन्त में यह बात बतायी गयी कि - साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदु: ।[1] पहचान लो भगवान को - सूर्य, चन्द्रमा आदि अधिदैव के रूप में भी वही है। पृथ्वी, जल, अग्नि आदि अधिभूत रूप में भी वही है और मन, बुद्धि आदि अध्यात्म रूप में भी वही है। सब परमात्मा का स्वरूप है, निद्र्वन्द्व है। कहीं हिचकने की कोई बात ही नहीं है। बेखटके चले चलो। आप लोगों को शायद सुनाया हो! एक बार हमने दिल्ली से हरिबाबा के बाँध की यात्रा की। सेकण्ड क्लास का टिकट था - सेकण्ड क्लास उस ट्रेन में था ही नहीं। हमने कहा ‘हिचको मत’ फर्स्ट क्लास में चलकर बैठो। फिर उन दिनों हमारे साथ कोई थे, वे नल का पानी नहीं पीते थे। वे चले गये कूएँ पर पानी लेने। गाड़ी चल पड़ी। मैंने कहा हिचको मत जंजीर खींच लो। न मेरे पास पैसा था, न कोई साथी था, न टिकिट था- क्या करते? टिकिट कलेक्टर आया - टिकिट लेकर चला गया। एक दो स्टेशन बाद आकर दे गया। ट्रेन से उतरे तो कोई लेने ही नहीं आया और शाम हो गयी थी। हमने कहा - ‘हिचको मत’ चलो। बैलगाड़ी जा रही थी; उसके मालिक ने आकर हाथ जोड़ा महाराज, आप बैठ जाइये। ना बाबा, तुम लोग स्त्री हो तुम लोग बैलगाड़ी से चलो। हम पैदल चलते हैं। हमारा सामान तुम ले लो। फिर पीछे से दूसरी अनजाने आदमी की बैलगाड़ी आयी और उसने हमको पहुँचा दिया। वहाँ गया तो हमारे लिए जो कुटिया बनायी गयी थी, उसमें ताला लगा हुआ था। मैंने कहा ‘हिचको मत’। रात में बारह बजे ताला तोड़ दिया। हाथ से खींचा सो टूट गया। ‘जाके मन में अटक रही सो ही अटक रहा’। अटकोगे तो भटक जाओगे। ‘चरैवेति-चरैवेति’ - चलते जाओ। दूसरा भगवान का योग क्या है? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्लोक 7.30
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