गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-8 : अध्याय 11
प्रवचन : 4
अर्जुन सरल बुद्धि से प्रश्न करते हैं - आप अपना योग और विभूति बताइये। भगवान ने अपने योग और विभूति के ज्ञान की बहुत प्रशंसा की - ललचाया। लोभी भी उत्पन्न करना चाहिए। हमारे एक महात्मा कहते थे यदि मनुष्य के मन में लोभ न हो और भय न हो तो कर्म मं उसकी प्रवृत्ति ही नहीं हो सकती। किसी को भी काम में लगाना हो तो थोड़ा ललचाना पड़ता है। इससे तुम्हें यह लाभ होगा और नहीं करोगे तो - भय बताना पड़ता है तुम्हारी हानि होगी। हानि से बचने के लिए और अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति के लिए, भय और लोभ से, मनुष्य की प्रवृत्ति होती है। अर्जुन ने प्रश्न क्यों किया? भगवान ने ललचा दिया। एतां विभूतिं योगं च मम यो वेत्ति तत्त्वत: । अरे अर्जुन, मेरे योग और विभूति को जो तत्त्वतः जान लेना है। वह योग से युक्त हो जाता है। तत्त्व उसको कहते हैं जिसमें नाम-रूप की कल्पना न की गयी हो। नाम-रूप की कल्पना के पूर्व जो स्थिति होती है उसे तत्त्व कहते हैं। जैसे ये कंगन हैं, ये हार हैं, ये कुण्डल हैं - जब अलग-अलग शक्ल नहीं बनायी गयी होगी और अलग-अलग नाम नहीं रखे गये होंगे, तो पहले सोना था और सोना क्या है - सिल्ली है - चूरा है, द्रव है। अन्त में स्वर्ण की एक ऐसी अवस्था मिलती है जहाँ वह मुझसे अलग नहीं मालूम पड़ेगा। स्वर्ण का, मृत्तिका का तत्त्व क्या है? अब अविकम्प योग की चर्चा करें। इस योग का नाम गीता में ही है। सोऽविकम्पेन योगेन युज्यते नात्र संशयः। आओ, हमारी विभूति को जानो और हमारे योग को जानो तो हमारा - तुम्हारा ऐसा योग होगा, ऐसा मिलन होगा, हम दोनों ऐसे मिल जावेंगे कि उसमें कभी विकम्प नहीं होगा, कभी भूकम्प नहीं आवेगा। कभी दोनों की धड़कन अलग-अलग नहीं चलेगी। हम दोनों एक हो जावेंगे। ‘अविकम्पेन योगेन।’ और योग वह होता है जो आता है और जाता है। आसन या प्राणायाम या प्रत्याहार किया, मन को एकाग्र किया। थोड़ी देर के लिए समाधि लग गयी। यह समाधि आती है और चली जाती है। इसलिए महात्मा लोग समाधि को पसन्द नहीं करते। हम तो ऐसी चीज चाहिए जो अपना स्वरूप हो। न कहीं अलग से आवे, न कहीं हमको छोड़कर जावे। तब अविकम्प योग, कम्पनरहित योग, अचल योग प्राप्त होगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्लोक 10.7
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