गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-8 : अध्याय 11
प्रवचन : 3
इनका जो अदृश्य नियामक है,वह मैं हूँ - ऐसा भगवान ने कहा। यह जो भगवान की विभूति है इसका अर्थ ही है कि आप किसी का तिरस्कार मत कीजिये। सब में भगवान, सब रूप में भगवान। अच्छा तो आओ, इनका ध्यान करें - ‘सर्पाणामस्मिवासुकिः’ आओ वासुकि का ध्यान करें - पीपल का ध्यान करें, हिमालय का ध्यान करें। नहीं, ये उपास्य नहीं है। ये उनकी विभूतियाँ हैं। ये जो मरने-जीने वाले प्राणी हैं, उनमें परमात्मा का ध्यान न करके नित्य रूप में परमात्मा का ध्यान किया जाता है। यहाँ विभति बताते-बताते श्रीकृष्ण ने अर्जुन को भी विभूति बता दिया है। ‘पाण्डवानां धनंजयः[1] - वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि।[2] मैं भी विभूति हूँ और तुम पाण्डुनन्दन भी विभूति हो। गुरुजी ही विभूति नहीं है, चेला भी विभूति है। ये सब आचार्य अपने को भगवान या भगवान का रिश्तेदार बताते हैं। कोई अपने कोसुदर्शन या कोई अपने को चक्र बताता है,कोई अपने को शेष बताता है। लेकिन अपने चेले को कोई अपनी विभूति नहीं कहता। यहीं आचार्यता अधूरी हो जाती है। हमको बोलने में किसी का डर नहीं है। असल में आचार्यता वहाँ है - जो मैं सो ही तुम हो। अपने से छोटा करके किसी को देखना, इसका नाम आचार्यता नहीं है। ‘वृष्णीनां वासुदेवः’ ठीक है - ‘पाण्डवानां धनन्जयः’ यह भी ठीक है। जो मैं हूँ सो तुम हो। जैसे मेरा व्यक्तित्व विभूति वैसे तुम्हारा व्यक्तित्व भी एक विभूति। ‘कथं विद्यामहं योगिंस्त्वां सदा परिचिन्तयन्’। मैं चाहता हूँ कि सदा तुम्हारा ‘परि’ माने परितः, सब जगह और ‘सदा’ माने सब काल में और ‘परि’ माने सब देश में और ‘त्वां’ माने तुमको। चिन्तन करने के लिए एक ही वस्तु हो - चाहे काम कोई हो, चाहे स्थान कोई हो चाहे नामरूप कोई हो। चिन्तन करने के लिए वस्तु एक हो। मैं कैसे तुम्हें पहचानूँ? बड़ा भारी परदा ढककर हमारे सामने आये हो। अनजाना बने बैठे हो। आप में आप पिछे, परदा करके बैठे। वह कहो चाहे तुम कहो, यह कहो चाहे मैं कहो, वस्तु तो एक ही है। यह ऊपर की खोल, अलग-अलग परदे के भेद से दृश्य का भेद हो रहा है, यह मेक-अप के भेद से व्यक्ति का भेद हो रहा है। कभी बाल मुड़ाकर आ गये तो कभी बाल लगाकर आ गये। आदमी तो वही है, कभी मूँछ लगा ली, कभी मूँछ उड़ा दी। वस्तु बिलकुल एक ही तभी ‘सदा’ और ‘परि’ - उसका चिन्तन हो सकता है। जैसे एक योगी अनेक रूप धारण कर ले, अनेक में व्याप्त हो जावे, परमात्मा भी वैसा ही विभिन्न रूपों में विद्यमान है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रमांक | प्रवचन | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज