गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-4 : अध्याय 7
प्रवचन : 1
आप जब परमात्मा की दृष्टि से प्रेम करेंगे तो देखेंगे कि चींटी को शक्कर कौन देता है? चिड़िया को उड़ने की शक्ति कौन देता है? एक बीज को अंकुरित होकर पल्लवित , पुष्पित और फलित होने की शक्ति कौन देता है? बिच्छु में विष कहाँ से आया? साँप में विष कहाँ से आया? इन पर आप विचार करिये और अपनी दृष्टि को ईश्वर की दृष्टि के साथ मिला दीजिए, अपने ज्ञान को ईश्वर के ज्ञान के साथ मिला दीजिए। ईश्वर से मत भेद मत करिये। यह मनुष्य दुःखी कब है? जब ईश्वर से मन नहीं मिला। ईश्वर से जब अपनी मति नहीं मिलती तब हम अज्ञानी हो जाते हैं- ईश्वर से जब अपनी मति नहीं मिलती तब हम दुःखी हो जाते हैं। ईश्वर से जब अपनी मति नहीं मिलती तभी मृत्यु का भय सामने आता है। ईश्वर में मृत्यु नहीं, दुःख नहीं, अज्ञान नहीं। ईश्वर से विमुख होने पर ही हम अज्ञानी और दुःखी होते हैं तथा हमारे जीवन में मृत्यु का भय आता है। अपने मन को ईश्वर के साथ चिपका दीजिए- इधर चिपका है संसार में, उधर चिपका दो ईश्वर के साथ, तो संसार आता-जाता रहेगा। इसमे उतार-चढ़ाव है संसार कभी ऊपर आता है, कभी नीचे आता है- नीचेर्गच्छत्युपरि च दशा चक्रनेमिक्रपेण।[1] जैसे रथ का पहिया कभी ऊपर और कभी नीचे घूमता है, वैसे ही काल-चक्र में यह संसार कभी ऊपर कभी नींचे जाता रहा है कभी यह आगे बढ़ता है, कभी पीछे हटता है तो कभी खड़ा हो जाता है यह संसार की गति है। संसार एकरस कभी नहीं चलता। बच्चा जवान होता है, जवान बूढ़ा होता है और बूढ़ा भगवान के दरबार में आता है। संसार एक सरीखा कभी नहीं रहता। यदि उसके साथ अपने मन को चिपका कर रखोगे तो जब यह बदलेगा, तब दुःख होगा, बिछुड़ेगा तब दुःख होगा, यह मरेगा तब दुःख होगा। इसके विपरीत यदि परमात्मा के साथ मन को मिलाकर रखोगे तो न परमात्मा बदलेगा, न बिछुडेगा, न मरेगा और न कहीं जायेगा। आपका मन हमेशा उसका स्वाद, उसका रस लेता रहेगा। आप काम करते चलो, सब काम करो। अपने पौरुष का ग्रन्थ है गीता; यह कोई आलस्य का ग्रन्थ नहीं है। इसमें अन्त में करिष्ये वचनं तव और मामेकं शरणं व्रजका उद्घोष है। ब्रज तो है न ! आओ मेरी शरण में आओ। अर्जुन ने कहा-‘मैं आपकी आज्ञा का पालन करूँगा।’ करिष्ये वचनं तव की प्रतिज्ञा के साथ अपने मन को भगवान के साथ, परमश्वर के साथ चिपका दो। परमेश्वर को जैसा ज्ञान, आनन्द और स्वरूप है वैसे ही अपने मन को उसमें चस्पा कर दो, चिपका दो, आसक्त कर दो। परमात्मा की ओर से मन कभी भटक जाय, भूल जाय, तब भी उसका आश्रय मत छोड़ो। ऊँ शान्तिः शान्तिः शान्ति। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ -उत्तर मेघ. 46
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