गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-9 : अध्याय 12
प्रवचन : 7
अम्ब त्वामनुसंदधामि भगवद्गीते भवद्वेषिणीम्। गीता अम्बा है। मराठी में बोलते हैं गीताई। आई माने माँ? मैं तुम्हारा अनुसन्धान करता हूँ। माता का ध्यान कर रहा हूँ। यह माता वर्णमयी हैं। शब्दमयी माँ हैं। परावाक्। इसी से श्रीकृष्ण के मुख-कमल से इसका अवतार हुआ। नमःपुरस्तादथ पृष्ठतस्ते, नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व। अर्जुन अपना विनय अपनी नम्रता भगवान के सामने प्रकट कर रहे हैं। ‘नमः पुरस्ताद्’-सामने से आपको नमस्कार करता हूँ। अथवा ‘पुरः नमः स्ताद्’ इसमें विसर्ग का लोप हो गया है पुरस्ताद् आपके सामने नमस्कार करता हूँ। नमस्कार माने अहंता-ममता छोड़कर मैं आपकी शरण में आया हूँ। नमन का अर्थ नम्न होना भी है और ‘न मे इति नमः’-नमः शब्द का अर्थ ‘मेरा कुछ नहीं-सब कुछ तेरा’। नचावे तो नाचो, बुलावे तो बोलो। ‘निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्‘। भगवान की कठपुतली बनकर नाचने का नाम नमः है। ‘उमा दारु जोषित की नाईं। सबहिं नचावत राम गोसाईं।। विधि हरि संभु नचावन हारे।’ यह अहम्-अहम्-अहम्, मम-मम-मम तो व्यर्थ हैं-‘नमः पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते’। सामने से नमस्कार है। पीछे से नमस्कार है-‘नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्वः’ हे सर्वस्वरूप आपको सब ओर से नमस्कार है। आप अनन्तवीर्य हैं। आप ही अनन्तविक्रम हैं। और ‘सर्वः’ आप ही सब हैं। ‘यतः सर्वं समाप्नोषि’। क्योंकि आप सब में व्यापक हैं। सब क्यों हैं? क्योंकि सब में व्याप्त हैं इसलिए सब हैं। इसको बदल भी दे सकते हैं-सब में व्याप्त होने से सब हैं और सब होने से सब में व्याप्त हैं। ‘यतस्त्वं सर्वः अतः सर्वं समाप्नोषि-यतः सर्वं समाप्नोषि अतः सर्वोऽसि। इसको केवल साकारी भी नहीं समझते, केवल निराकारी भी नहीं समझते। हमारे सब आचार्यों के मत में जो वैदिक हैं-शंकर, रामानुज, मध्व, निम्बार्क, बल्लभ सब के मत हैं जगत का अभिन्ननिमित्तोपादान कारण परमात्मा है। अवान्तर भेद हैं-यह बात दूसरी है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 11.40
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