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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">'''भाग-3 : अध्याय 6'''</div> | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">'''भाग-3 : अध्याय 6'''</div> | ||
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">'''प्रवचन : 5'''</div> | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">'''प्रवचन : 5'''</div> | ||
− | अब | + | अब बुद्धि की अशुद्धि की बात लीजिए। क्या कभी आप सोचते हैं कि अमुक दवा खायेंगे तो बुद्धि ठीक हो जायेगी? दूसरा कोई आकर आपके सिर पर हाथ रख देगा और आपकी समाधि लग जायेगी? यदि आप ऐसा सोचते हैं तो बिलकुल ग़लत है। यदि कोई कहे कि हमारा मन स्वभाव से ही स्थिर रहता है तो मैंने देखा है, जिन्होंने जीवन भर भगवान की पूजा का नियम निभाया है, वे सुखी रहे। अपने जीवन को सुखी रखने की कला, तटस्थ रखने की कला समता है। जीवन में समता रहेगी। बुद्धि में भी समता का उदय होगा, समता का आदर होना चाहिए। जहाँ ममता ज्यादा होती है, वहाँ समता नहीं होती। ममता और समता में विरोध है। यदि ममता को [[ईश्वर]] के साथ जोड़ दिया जाये, तो संसार में भी समता रहेगी। |
− | भक्ति-सिद्धान्त यह है कि ममता | + | भक्ति-सिद्धान्त यह है कि ममता ईश्वर में रहे, और ज्ञान-सिद्धान्त यह है कि ममता किसी में न हो। समता नहीं होगी, ममता होगी तो बुद्धि ठीक नहीं रहेगी, कभी-न-कभी जरूर गड़बडा जायेगी। |
अब गुरुओं की बात सुनाते हैं आप लोग चमत्कार मत मानना। मुझे एक ऐसे साधु मिले, जिन्होंने मेरे सिर पर हाथ रखा और हमारे मुँह से भगवान के नाम का उच्चारण होने लगा। बाद में बन्द हो गया। मैंने पूछा कि अब? साधु बोले कि क्या मैं तुम्हारे सिर पर बराबर हाथ रखे रहूँगा? तुमको स्वयं यह साधन करना पड़ेगा। दूसरे पर भरोसा कब तक करोगे। | अब गुरुओं की बात सुनाते हैं आप लोग चमत्कार मत मानना। मुझे एक ऐसे साधु मिले, जिन्होंने मेरे सिर पर हाथ रखा और हमारे मुँह से भगवान के नाम का उच्चारण होने लगा। बाद में बन्द हो गया। मैंने पूछा कि अब? साधु बोले कि क्या मैं तुम्हारे सिर पर बराबर हाथ रखे रहूँगा? तुमको स्वयं यह साधन करना पड़ेगा। दूसरे पर भरोसा कब तक करोगे। | ||
− | एक दूसरे साधु को मैंने देखा। उनके शरीर पर जहाँ भी कान लगाओ, वहाँ से भगवान के नाम का उच्चारण होता था। उनके पाँवों में-से भी होता, तलवों में-से भी होता। लेकिन प्रश्न उठता है कि जब हम स्वयं अभ्यास नहीं करेंगे तो दूसरे के शरीर से होने वाले | + | एक दूसरे साधु को मैंने देखा। उनके शरीर पर जहाँ भी कान लगाओ, वहाँ से भगवान के नाम का उच्चारण होता था। उनके पाँवों में-से भी होता, तलवों में-से भी होता। लेकिन प्रश्न उठता है कि जब हम स्वयं अभ्यास नहीं करेंगे तो दूसरे के शरीर से होने वाले भगवन्नाम का उच्चारण हमारे किस काम आवेगा। हमें तो अपनी ही निष्ठा में स्थिर होना होगा। |
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[[चित्र:Next.png|right|link=गीता दर्शन -अखण्डानन्द सरस्वती पृ. 390]] | [[चित्र:Next.png|right|link=गीता दर्शन -अखण्डानन्द सरस्वती पृ. 390]] |
17:22, 3 फ़रवरी 2018 के समय का अवतरण
गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-3 : अध्याय 6
प्रवचन : 5
अब बुद्धि की अशुद्धि की बात लीजिए। क्या कभी आप सोचते हैं कि अमुक दवा खायेंगे तो बुद्धि ठीक हो जायेगी? दूसरा कोई आकर आपके सिर पर हाथ रख देगा और आपकी समाधि लग जायेगी? यदि आप ऐसा सोचते हैं तो बिलकुल ग़लत है। यदि कोई कहे कि हमारा मन स्वभाव से ही स्थिर रहता है तो मैंने देखा है, जिन्होंने जीवन भर भगवान की पूजा का नियम निभाया है, वे सुखी रहे। अपने जीवन को सुखी रखने की कला, तटस्थ रखने की कला समता है। जीवन में समता रहेगी। बुद्धि में भी समता का उदय होगा, समता का आदर होना चाहिए। जहाँ ममता ज्यादा होती है, वहाँ समता नहीं होती। ममता और समता में विरोध है। यदि ममता को ईश्वर के साथ जोड़ दिया जाये, तो संसार में भी समता रहेगी। भक्ति-सिद्धान्त यह है कि ममता ईश्वर में रहे, और ज्ञान-सिद्धान्त यह है कि ममता किसी में न हो। समता नहीं होगी, ममता होगी तो बुद्धि ठीक नहीं रहेगी, कभी-न-कभी जरूर गड़बडा जायेगी। अब गुरुओं की बात सुनाते हैं आप लोग चमत्कार मत मानना। मुझे एक ऐसे साधु मिले, जिन्होंने मेरे सिर पर हाथ रखा और हमारे मुँह से भगवान के नाम का उच्चारण होने लगा। बाद में बन्द हो गया। मैंने पूछा कि अब? साधु बोले कि क्या मैं तुम्हारे सिर पर बराबर हाथ रखे रहूँगा? तुमको स्वयं यह साधन करना पड़ेगा। दूसरे पर भरोसा कब तक करोगे। एक दूसरे साधु को मैंने देखा। उनके शरीर पर जहाँ भी कान लगाओ, वहाँ से भगवान के नाम का उच्चारण होता था। उनके पाँवों में-से भी होता, तलवों में-से भी होता। लेकिन प्रश्न उठता है कि जब हम स्वयं अभ्यास नहीं करेंगे तो दूसरे के शरीर से होने वाले भगवन्नाम का उच्चारण हमारे किस काम आवेगा। हमें तो अपनी ही निष्ठा में स्थिर होना होगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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