गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-3 : अध्याय 6
प्रवचन : 5
यदि आप बुद्धियोगी हैं तो सुख-दुःख से बचने का उपाय आपको मालूम है- कर्मजं बुद्धियुक्ता कि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः। तो पाप-पुण्य से, नरक-स्वर्ग से, राग-द्वेष से, सुख-दुःख से बचने का उपाय जिस बुद्वि को मालूम है, वही बुद्धि ठीक होती है और सारी गीता में उसी का वर्णन है। तो कहने की बात यह थी कि गीता में योग है, वह समाधि लगाने के लिये नहीं। वह द्रष्टा के स्वरूप में अवस्थित होने के लिए भी नहीं। योगियों ने गीता को अपने पक्ष में लेने के लिए उसके साथ थोड़ी ज़बरदस्ती की है। जो समबुद्धि पुरुष है, वह कहाँ हैं। गीता में जो योग है, वह तो बुद्धि को सम रखने का उपाय है। हमारी बुद्धि दुकान में, ऑफिस में, हल चलाते समय, खेती करते समय, यज्ञ-योग करते समय अर्थात् सब प्रकार के व्यवहार-काल में ठीक रहे, इसी के लिए गीता योग का उपदेश करती है- अपनी बुद्धि को सम रखने का उपाय बताती है। इस संसार में चाहे कितना भी और कैसा भी व्यावहारिक व्यक्ति हो, वह बुद्धि को ठीक रखना चाहता है। इसलिए गीता का उपदेश सबके लिए सर्वकाल के लिए है। गीता केवल वर्णाश्रमी-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्र के लिए नहीं, केवल हिन्दुओं के लिए भी नहीं, केवल भारतीयों के लिए भी नहीं, वह तो समस्त विश्ववासियों के लिए है। क्योंकि बुद्धि की आवश्यकता तो सार्वदेशिक है, सार्वभौम है, सार्वकालिक है। सबको सब जगह और सर्वकाल में बुद्धि चाहिए। भगवान केवल किसी जाति विशेष के लिए, प्रान्त विशेष के लिए अथवा देश विशेष के लिए नहीं बोलते। वे सेठ के लिए भी बोलते हैं, श्रमिक के लिए भी बोलते हैं। धनी के लिए भी बोलते हैं। गरीब के लिए भी बोलते हैं। वे हिन्दुस्तानी के लिए बोलते हैं। पाकिस्तानी के लिए भी बोलते हैं। कई हिन्दुस्तानी लोग जो यह समझते हैं कि भगवान हमारा ही पक्षपात करेंगे पाकिस्तानी का नहीं करेंगे, केवल हिन्दुओं का पक्षपात करेंगे, मुसलमान का नहीं करेंगे, वे ठीक नहीं समझते। भगवान की वाणी की विशेषता ही यह है कि वह सबके कल्याण के लिए होती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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