गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-3 : अध्याय 6
प्रवचन : 4
मेरे भाई, वे पैदा नहीं होते, कहीं से चोरी करके, अथवा खरीदकर आते हैं। तो छोड़िये उस चमत्कार दिखाने वाले तथाकथित योगियों की बातों को। सच्चे योगी कई प्रकार के होते हैं। एक योगी वह है, जो अपने ज्ञान-विज्ञान में तृप्त है। उसकी तृप्ति कहाँ है? उसके अपने हृदय के भीतर है। उसके ज्ञान-विज्ञान है, उसकी जो परमात्मा के बारे में जानकारी और अनुभव है, उसी में वह तृप्त है। दूसरी पहचान योगी की यह है कि वह कूटस्थ है अर्थात् प्रलोभनों से अविचल है। जब सुनार लोग जेवर गढ़ते हैं, उसे लोहे की निहाय पर हथौड़े से पीटते हैं, उस निहाय पर कूट-कूट कर न जाने कितने जेवर बने, कितनों पर हथौड़ों की चोट पड़ी, परन्तु वह निहाय ज्यो-की-त्यों है। जेवर बनते-बिगड़ते रहते हैं। हथोड़ों की चोट कभी पड़ती है कभी नहीं पड़ती, वह जैसा-का-तैसा रहता है। उसी प्रकार कूटस्थ योगी अपने स्वरूप में स्थित रहता है। ऐसे समझो कि जिस प्रकार चित्रकूट, त्रिकूट अथवा पहाड़ का शिखर वर्षा, सर्दी, गर्मी, में जैसा-का-तैसा रहता है वैसा ही कूटस्थ रहता है क्योंकि वह मूल पुरुष है। तीसरी पहचान है योगी की कि उसका चरित संयमित तथा वह विजितेन्द्रिय होता है। इन्द्रियाँ उसकी अविजित नहीं होती। वह हिमालय की गुफा में नहीं रहता, आप लोगों में रहता है। बनारस में चार योगी चार स्थानों पर रहते थे। एक तो पुलिस की चौकी के सामने बैठा रहता था। दूसरा दालमण्डी के नुक्कड़ पर रहता था। तीसरा श्मशान घाट पर रहता था और चौथा बाजार में घूमा करता था। इनको किसी से कोई मतलब नहीं था कि कौन कैसा है? तो ‘समलोष्टाश्मकांजनः’ योगी के लिए मिट्टी डला, पत्थर का टुकड़ा और सोना सब बराबर है। उसको पत्थर से मकान नहीं बनाना, मिट्टी से खेती नहीं करनी और सोने का जेवर नहीं बनाना। उसके सामने अप्रयोजकत्व है। प्रयोजन ही नहीं, लेन-देन ही नहीं, तब वह क्यों किसी की चिन्ता करे? जो योगी बाज़ार में रहता और अपना व्यवहार चलाता रहता है, उसे देखकर गृहस्थ लोग कभी-कभी कहते हैं कि बाबा जी, तुमको यहाँ आने से क्या मतलब? बड़ी विचित्र बात है। वे तो स्वयं अपने को सत्संग से, सद्भावना से, सद्विचार से वंचित रखने की बात कहते हैं। एक सज्जन ने कहा कि महाराज! ब्रह्म बोलकर बताया जा सकता है क्या? नहीं भाई, नहीं बताया जा सकता। उपनिषदों में ऐसा ही है। तब आप क्यों बोलते हैं? लो, हम चुप हो जाते हैं। चुप होने से हमारा क्या नुकसान हुआ? थोड़ी देर में फिर बोले, नहीं महाराज! कुछ उपदेश कीजिए। तो यह स्थिति है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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