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− | इस बात को दूसरे मजहब वाले नहीं समझते। हमारे वेद-शास्त्रों की यह प्रतिज्ञा ही है कि एक के विज्ञान से सर्व का विज्ञान हो जाता है। यदि एक तत्त्व ही सब न होता तो एक के विज्ञान से | + | इस बात को दूसरे मजहब वाले नहीं समझते। हमारे [[वेद]]-शास्त्रों की यह प्रतिज्ञा ही है कि एक के विज्ञान से सर्व का विज्ञान हो जाता है। यदि एक तत्त्व ही सब न होता तो एक के विज्ञान से सर्व का विज्ञान कैसे होता? परमात्मा लोहे की तरह है, परमात्मा मिट्टी की तरह है और परमात्मा सोने की तरह है जैसे कि उपनिषदो में वर्णन है, जिस तरह मिट्टी की बनी सब चीजे मिट्टी हैं, सोने से बनी सब चीजें सोना हैं और लोहे से बनी सब चीजें लोहा हैं, उसी तरह परमात्मा से ही सब चीजें बनी हैं और सबकी सब परमात्मा हैं। परमात्मा केवल सिरजनहार-बनाने वाला ही नहीं, सबके रूप में बनने वाला भी है। उसके रूप में भी वही है, तुम्हारे रूप में भी वही है। सबके रूप में वही है। परमात्मा के ही सब रूप हैं। |
− | तो भाई मेरे परमात्मा का जो विज्ञान है, यह हम को समता की समत्व की शिक्षा देता है। इस पर बहुत जोर है | + | तो भाई मेरे परमात्मा का जो विज्ञान है, यह हम को समता की समत्व की शिक्षा देता है। इस पर बहुत जोर है भगवान का। आप [[गीता]] में जगह-जगह देखेंगे। गीता कोई बहुत बड़ी पुस्तक नहीं। [[महाभारत]] में तो एक लाख [[श्लोक]] है, [[स्कन्दपुराण]] में अस्सी हज़ार हैं, [[भागवत पुराण|भागवत]] में अठ्ठारह हजार हैं, किन्तु गीता में कुल सात सौ श्लोक हैं और इन में बारम्बार ‘शीतोष्णखदुःखेषु समः संगविवर्जितः,’ ‘मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय, शीतोष्णसुखदुःखदा’ आदि का उल्लेख आता है। भगवान कहते हैं कि जीवन में ठण्डी, गर्मी, दुःख आते रहते हैं। इनमें अपने मन को काबू मे रखो। घबराओ मत। ठण्डी आयी है चली जायेगी, गर्मी आयी है चली जायेगी। आज सुख आया है यह भी चला जायेगा, हमारे एक मित्र हैं। उनके घर में बड़े-बड़े सुन्दर अक्षरों में ‘यह भी न रहेगा’ लिखा हुआ है। |
− | मतलब यह कि न यह फर्श रहेगा, न यह दीवार रहेगी, न यह फर्नीचर | + | मतलब यह कि न यह फर्श रहेगा, न यह दीवार रहेगी, न यह फर्नीचर रहेगा। न यह बचपन रहेगा और न यह जवानी रहेगी। इसलिए अपने मन को ठण्डी के अधीन मत करो, गर्मी के अधीन मत करो। एक गरीब आदमी ठण्ड के दिनों में रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म पर पड़ा था उसके पास एक छोटी-सी गुदड़ी थी। जब सिर ढके तो पाँव उघर जायें और पाँव ढके तो सिर उघर जायँ। बड़ा परेशान था बेचारा। उधर से एक फ़कीर निकला। उसने कहा क्या परेशानी है? कहा- महाराज ! पाँव ढकता हूँ तो सिर उघर जाता है और सिर ढकता हूँ तो पाँव उघर जाते हैं, ठण्ड लग रही है। फ़कीर ने कहा कि तुम्हारी यह गुदड़ी तो बड़ी हो नहीं सकती इसलिए तुम्हीं अपने को सिकोड़ लो। पावों को जरा समेट लो। जब पाँव सिकुडेंगे तब सिर भी गुदड़ी से ढक जायेगा। |
| style="vertical-align:bottom;"| [[चित्र:Next.png|right|link=गीता दर्शन -अखण्डानन्द सरस्वती पृ. 374]] | | style="vertical-align:bottom;"| [[चित्र:Next.png|right|link=गीता दर्शन -अखण्डानन्द सरस्वती पृ. 374]] | ||
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15:49, 3 फ़रवरी 2018 के समय का अवतरण
गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-3 : अध्याय 6
प्रवचन : 4
त्वं स्त्री त्वं पुमानसि इस बात को दूसरे मजहब वाले नहीं समझते। हमारे वेद-शास्त्रों की यह प्रतिज्ञा ही है कि एक के विज्ञान से सर्व का विज्ञान हो जाता है। यदि एक तत्त्व ही सब न होता तो एक के विज्ञान से सर्व का विज्ञान कैसे होता? परमात्मा लोहे की तरह है, परमात्मा मिट्टी की तरह है और परमात्मा सोने की तरह है जैसे कि उपनिषदो में वर्णन है, जिस तरह मिट्टी की बनी सब चीजे मिट्टी हैं, सोने से बनी सब चीजें सोना हैं और लोहे से बनी सब चीजें लोहा हैं, उसी तरह परमात्मा से ही सब चीजें बनी हैं और सबकी सब परमात्मा हैं। परमात्मा केवल सिरजनहार-बनाने वाला ही नहीं, सबके रूप में बनने वाला भी है। उसके रूप में भी वही है, तुम्हारे रूप में भी वही है। सबके रूप में वही है। परमात्मा के ही सब रूप हैं। तो भाई मेरे परमात्मा का जो विज्ञान है, यह हम को समता की समत्व की शिक्षा देता है। इस पर बहुत जोर है भगवान का। आप गीता में जगह-जगह देखेंगे। गीता कोई बहुत बड़ी पुस्तक नहीं। महाभारत में तो एक लाख श्लोक है, स्कन्दपुराण में अस्सी हज़ार हैं, भागवत में अठ्ठारह हजार हैं, किन्तु गीता में कुल सात सौ श्लोक हैं और इन में बारम्बार ‘शीतोष्णखदुःखेषु समः संगविवर्जितः,’ ‘मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय, शीतोष्णसुखदुःखदा’ आदि का उल्लेख आता है। भगवान कहते हैं कि जीवन में ठण्डी, गर्मी, दुःख आते रहते हैं। इनमें अपने मन को काबू मे रखो। घबराओ मत। ठण्डी आयी है चली जायेगी, गर्मी आयी है चली जायेगी। आज सुख आया है यह भी चला जायेगा, हमारे एक मित्र हैं। उनके घर में बड़े-बड़े सुन्दर अक्षरों में ‘यह भी न रहेगा’ लिखा हुआ है। मतलब यह कि न यह फर्श रहेगा, न यह दीवार रहेगी, न यह फर्नीचर रहेगा। न यह बचपन रहेगा और न यह जवानी रहेगी। इसलिए अपने मन को ठण्डी के अधीन मत करो, गर्मी के अधीन मत करो। एक गरीब आदमी ठण्ड के दिनों में रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म पर पड़ा था उसके पास एक छोटी-सी गुदड़ी थी। जब सिर ढके तो पाँव उघर जायें और पाँव ढके तो सिर उघर जायँ। बड़ा परेशान था बेचारा। उधर से एक फ़कीर निकला। उसने कहा क्या परेशानी है? कहा- महाराज ! पाँव ढकता हूँ तो सिर उघर जाता है और सिर ढकता हूँ तो पाँव उघर जाते हैं, ठण्ड लग रही है। फ़कीर ने कहा कि तुम्हारी यह गुदड़ी तो बड़ी हो नहीं सकती इसलिए तुम्हीं अपने को सिकोड़ लो। पावों को जरा समेट लो। जब पाँव सिकुडेंगे तब सिर भी गुदड़ी से ढक जायेगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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