छो (Text replacement - ""background:transparent text-align:justify "" to ""background:transparent; text-align:justify;"") |
|||
पंक्ति 7: | पंक्ति 7: | ||
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">'''भाग-3 : अध्याय 6'''</div> | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">'''भाग-3 : अध्याय 6'''</div> | ||
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">'''प्रवचन : 3'''</div> | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">'''प्रवचन : 3'''</div> | ||
− | यह गले का जो बिल है, भीतर किसी चीज को भेजने का नाम भोजन है। तो भोजन किस चीज का करें? जो मुँह में जा सके, उसको खा लें? ऐसा तो तभी हो सकता है जब विवेक भ्रष्ट हो जायेगा। कहाँ जाये, कहाँ न जाये? जहाँ पाँव घुस | + | हमारा जो ‘भोजन’ शब्द है, उसका संस्कृत भाषा में मज़ाक उड़ाया गया है। उसे कहते हैं- '''‘गलबिलाधः संयोगरूपव्यापारः।’''' |
+ | यह गले का जो बिल है, भीतर किसी चीज को भेजने का नाम भोजन है। तो भोजन किस चीज का करें? जो मुँह में जा सके, उसको खा लें? ऐसा तो तभी हो सकता है जब विवेक भ्रष्ट हो जायेगा। कहाँ जाये, कहाँ न जाये? जहाँ पाँव घुस सके वहाँ चले जायँ? क्या करें, क्या न करें? अगर न करना होता तो [[ईश्वर]] हाथ क्यों बनाता? इसलिए हाथ से जो कर सकते हैं, करें? जेब काट सकते हैं तो काट लें। यह सब विवेकहीनता की बातें हैं। आपने ईश्वर की दी हुई विवेकशक्ति का तिरस्कार किया है तो अपराध किया है। इसलिए विवेक का आदर करने के लिए ध्यान का अभ्यास करना चाहिए। आपके जीवन में जो चंचलता की पराधीनता आ गयी है, उस पर काबू पाने के लिए स्थिरता अनिवार्य है। | ||
− | संसार में स्थिरता के बिना कुछ नहीं हो सकता। यह जो भोग की पराधीनता आ गयी है कि खाये बिना नहीं रह सकते, पिये बिना नहीं रह सकते, पहने बिना नहीं रह सकते है, उसने मनुष्य को नीचे गिरा दिया है। यह तो देखो कि तुम उसके बिना नहीं रह सकते तो वह भी तुम्हारे बिना नहीं रह सकता है क्या? तुम चाय के बिना नहीं रह सकते, पर चाय तुम्हारे बिना रह सकती है कि नहीं? तुम्हारा जो एकांगी प्रेम ईश्वर से होना चाहिए था, वह चाय से हो गया? धन तो तुम्हारे बिना भी था और आज भी है। | + | संसार में स्थिरता के बिना कुछ नहीं हो सकता। यह जो भोग की पराधीनता आ गयी है कि खाये बिना नहीं रह सकते, पिये बिना नहीं रह सकते, पहने बिना नहीं रह सकते है, उसने मनुष्य को नीचे गिरा दिया है। यह तो देखो कि तुम उसके बिना नहीं रह सकते तो वह भी तुम्हारे बिना नहीं रह सकता है क्या? तुम चाय के बिना नहीं रह सकते, पर चाय तुम्हारे बिना रह सकती है कि नहीं? तुम्हारा जो एकांगी प्रेम [[ईश्वर]] से होना चाहिए था, वह चाय से हो गया? धन तो तुम्हारे बिना भी था और आज भी है। |
− | वह तुम को नहीं पहचानता है कि तुम उसके धनी हो। इसलिए तुम्हारा उसके प्रति एकांगी प्रेम होता है। जड़ वस्तुओं से जितना प्रेम होता है, उतना वही होता है। एकांगी प्रेम का यही नमूना है। | + | वह तुम को नहीं पहचानता है कि तुम उसके धनी हो। इसलिए तुम्हारा उसके प्रति एकांगी प्रेम होता है। जड़ वस्तुओं से जितना प्रेम होता है, उतना वही होता है। एकांगी प्रेम का यही नमूना है। जिस प्रकार मछली [[पानी]] के बिना मर जाती है, चकोर [[चन्द्रमा]] के बिना मर जाता है, उसी प्रकार क्या आप चाय के बिना मर जायेंगे? यह आपका प्रेम है? नहीं, यह तो जड़ता है। |
तो भाई कर्म को, भोग को और संकल्प को वश में करने के लिए पौरुष की आवश्यकता है। गीता पौरुष का ग्रन्थ है। प्रारब्ध का ग्रन्थ नहीं। जो हमारे प्रारब्ध में होगा सो हो जायेगा, यह गीता नहीं बोलती। जो प्रकृति में होगा वह हो जायेगा- यह गीता नहीं बोलती। वह बोलती है कि आपको अपने व्यक्तिगत जीवन में पौरुषनिष्ट होना चाहिए। | तो भाई कर्म को, भोग को और संकल्प को वश में करने के लिए पौरुष की आवश्यकता है। गीता पौरुष का ग्रन्थ है। प्रारब्ध का ग्रन्थ नहीं। जो हमारे प्रारब्ध में होगा सो हो जायेगा, यह गीता नहीं बोलती। जो प्रकृति में होगा वह हो जायेगा- यह गीता नहीं बोलती। वह बोलती है कि आपको अपने व्यक्तिगत जीवन में पौरुषनिष्ट होना चाहिए। |
15:16, 3 फ़रवरी 2018 के समय का अवतरण
गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-3 : अध्याय 6
प्रवचन : 3
हमारा जो ‘भोजन’ शब्द है, उसका संस्कृत भाषा में मज़ाक उड़ाया गया है। उसे कहते हैं- ‘गलबिलाधः संयोगरूपव्यापारः।’ यह गले का जो बिल है, भीतर किसी चीज को भेजने का नाम भोजन है। तो भोजन किस चीज का करें? जो मुँह में जा सके, उसको खा लें? ऐसा तो तभी हो सकता है जब विवेक भ्रष्ट हो जायेगा। कहाँ जाये, कहाँ न जाये? जहाँ पाँव घुस सके वहाँ चले जायँ? क्या करें, क्या न करें? अगर न करना होता तो ईश्वर हाथ क्यों बनाता? इसलिए हाथ से जो कर सकते हैं, करें? जेब काट सकते हैं तो काट लें। यह सब विवेकहीनता की बातें हैं। आपने ईश्वर की दी हुई विवेकशक्ति का तिरस्कार किया है तो अपराध किया है। इसलिए विवेक का आदर करने के लिए ध्यान का अभ्यास करना चाहिए। आपके जीवन में जो चंचलता की पराधीनता आ गयी है, उस पर काबू पाने के लिए स्थिरता अनिवार्य है। संसार में स्थिरता के बिना कुछ नहीं हो सकता। यह जो भोग की पराधीनता आ गयी है कि खाये बिना नहीं रह सकते, पिये बिना नहीं रह सकते, पहने बिना नहीं रह सकते है, उसने मनुष्य को नीचे गिरा दिया है। यह तो देखो कि तुम उसके बिना नहीं रह सकते तो वह भी तुम्हारे बिना नहीं रह सकता है क्या? तुम चाय के बिना नहीं रह सकते, पर चाय तुम्हारे बिना रह सकती है कि नहीं? तुम्हारा जो एकांगी प्रेम ईश्वर से होना चाहिए था, वह चाय से हो गया? धन तो तुम्हारे बिना भी था और आज भी है। वह तुम को नहीं पहचानता है कि तुम उसके धनी हो। इसलिए तुम्हारा उसके प्रति एकांगी प्रेम होता है। जड़ वस्तुओं से जितना प्रेम होता है, उतना वही होता है। एकांगी प्रेम का यही नमूना है। जिस प्रकार मछली पानी के बिना मर जाती है, चकोर चन्द्रमा के बिना मर जाता है, उसी प्रकार क्या आप चाय के बिना मर जायेंगे? यह आपका प्रेम है? नहीं, यह तो जड़ता है। तो भाई कर्म को, भोग को और संकल्प को वश में करने के लिए पौरुष की आवश्यकता है। गीता पौरुष का ग्रन्थ है। प्रारब्ध का ग्रन्थ नहीं। जो हमारे प्रारब्ध में होगा सो हो जायेगा, यह गीता नहीं बोलती। जो प्रकृति में होगा वह हो जायेगा- यह गीता नहीं बोलती। वह बोलती है कि आपको अपने व्यक्तिगत जीवन में पौरुषनिष्ट होना चाहिए। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रमांक | प्रवचन | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज