गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-3 : अध्याय 6
प्रवचन : 3
इन चारों बातो को वेदान्त में, दर्शनशास्त्र में अधिकारी, विषय, प्रयोजन एवं सम्बन्ध- इन चार शब्दों से बोलते हैं। जो काम हम कर रहे हैं, उसको करने की योग्यता पर विचार। फिर किस प्रयोजन से कर रहे हैं, इससे विश्व की कौन-सी सेवा होगी इसका विचार। दुनिया मे इसकी माँग ही न हो, यह भी देख लेना चाहिए। वस्तु तो आप बहुत बढ़िया बना रहे हैं। लेकिन संसार के बाजार में उसकी माँग ही न हो, खपत ही न हो तो आपका व्यापार किस काम का? तो पहले अपनी योग्यता और बाद में काम का प्रयोजन। फिर काम की रूप रेखा और इस काम से हमारे प्रयोजन की पूर्ति कहाँ तक होती है; इन चार बातों का विचार करते तब कर्म करना चाहिए। अब प्रश्न उठता है कि इन चारों बातों का विचार करके कर्म प्रारम्भ करने में संकल्प का त्याग कहाँ हुआ? इसका उत्तर यह है कि हम जो व्यक्तिगत सुख और स्चार्थ में प्रवृत्त हो रहे थे, उसका संकल्प नहीं हैं। गोस्वामी तुलसीदास जी के शब्दों में विभीषण बोलते हैं कि-
मैं भगवान् राम के पास जाऊँगा और वहाँ अपने सुख, अपने भोग, अपनी कामनापूर्ति के लिए, अपने स्वार्थ के लिए काम नहीं करूँगा। मैं ऐसा काम करूँगा कि अपने स्वामी श्री रामचन्द्र को अच्छा लगूँ। यदि मैं अपने स्वार्थ के लिए अपने सुख के लिए श्रीरामचन्द्र जी के पास जाऊँगा तो मन में कपट हो जायेगा। मैं केवल उनकी सेवा करना चाहता हूँ, मेरा अपना कोई स्वार्थ नहीं। स्वार्थ माने बटोरना। स्वार्थ में अर्थ है और सुख में कामना है, काम भोग है। विभीषण जी मेरा कहते है कि न हमको धन चाहिए। न भोग चाहिए। केवल राम भगवान की प्रसन्नता चाहिए। इसी तरह कर्ता के मन में विश्वात्मा की, परमात्मा की प्रसन्न्ता का भाव होना चाहिए। उसे तो स्वस्त्यस्तु विश्वस्य-सम्पूर्ण विश्व का कल्याण हो, यह सोचना चाहिए। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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