गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-8 : अध्याय 11
प्रवचन : 9
‘अन्तः प्रवृत्तः शास्ता जनानाम्’। वेद भगवान कहते हैं, वह सबके हृदय में बैठा है। और सबका शासन कर रहा है। वही ‘शरीरं रथमेव तु’[1] शरीर रथी है और ‘आत्मानं रथिनं विद्धि’,।[2] आत्मा रथी है और ‘बुद्धिं तु सारथिं विद्धि।’ तथा बुद्धि में बैठकर वासुदेव सारथि का काम कर रहे हैं। गीता के जो गुरु हैं भगवान, वे हमारे हृदय में बैठे हैं। और हम उनके शिष्य अर्जुन हैं। वे जो कुछ कहते हैं हमसे ही कहते हैं। हम गीता की बात सुनें तो भगवान हमारे हृदय में बोल रहे हैं। देखो आपको एक कौतूहल दिखाते हैं। हमने कहा यदि हम मनुष्य न होते, ऊँट होते और भगवान हमको बता रहे हैं- कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।[3] वहाँ कर्म का अर्थ क्या होता? बोझ ढोओ, गाड़ी चलाओ। खाने को तो तुम्हारा मालिक देगा ‘मा फलेषु कदाचन’। अच्छा, हम बैल होते तो इसका अर्थ होता? हम चिड़िया होते तो इसका क्या अर्थ होता? ऐसे हम लोग पहले लोग गीता पढ़ते थे। 5-4 जने बैठ जाते। एक के हाथ में ज्ञानेश्वरी, एक के हाथ में शांकरभाष्य, एक के हाथ में मधुसूदनी, एक के हाथ में लोकमान्य तिलक। मैं, अवधूत, चक्रजी, गोस्वामीजी, पुस्तक खोल-खोलकर एक-एक श्लोक का अर्थ देखते। फिर थोड़ी देर आँख बन्द कर लेते। आओ भाई, अलग-अलग सोचें-हम स्त्री हैं तो भगवान क्या बोल रहे हैं? हम पुरुष हैं तो भगवान क्या बोल रहे हैं? सबके लिए निकलता था अर्थ। ऐसे नहीं कि जो भक्त चन्दन-टीका लगाकर जनेउ पहनकर गीता का पाठ करते हों उन्हीं के लिए गीता हो, यह बात नहीं है। यह जो गीता में बोलने वाले भगवान हैं, वे सबके लिए बोलते हैं अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते।[4] मैं सबका बाप हूँ-संचालक हूँ। साफ कह दिया- यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।[5] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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