गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-8 : अध्याय 11
प्रवचन : 10
अब शंकराचार्य भगवान् ने अंश का विचार किया है। देखो, आकाश के किस हिस्से में यह पृथ्वी है? आप लोगों के पास बड़े-बड़े कॉम्प्यूटर हैं। कुछ यहाँ हैं, कुछ जर्मनी में हैं, कुछ अमेरिका में हैं। आपके पास गणित की कोई ऐसी रीति है, कि आकाश के जिस करोड़वें लाखवें, हजारवें या अरबवें हिस्से में यह धरती है, उसे आप गिन सकते हैं? यदि आप यह गिन सकते तो आकाश को नाप सकते हैं कि पृथ्वी का इतना बड़ा आकाश है। शंकराचार्य ने कहा कि अनन्त का अंश भी अनन्त ही होता है। शून्य का लाखवाँ अंश क्या होगा? शून्य का अंश होता ही नहीं। अंश क्या होता है? अद्वितीय के किस अंश में यह सृष्टि है? अद्वितीय में तो अंश हेाता ही नहीं। फिर? इस सृष्टि का कितना गुना परमात्मा है? नापो! तब उन्होंने अंश शब्द का व्याख्यान किया। अंश इवांशः। ममैवांशो जीव लोके,[1] इस श्लोक के अंश की व्याख्या में आचार्य शंकर ने कहा कि ‘अंश इवांशः’। हम लोग लौकिक दृष्टि से जैसे अंश की कल्पना करते हैं वैसे परमात्मा में भी यह अंश के समान कल्पित अंश है। वस्तुतः वहाँ अंश नहीं है। हमारी दृष्टि से अंशांशि-भाव की कल्पना होती है। परमात्म दृष्टि से अंशाशी की कल्पना नहीं होती। यह तो देह में ‘मैं’ करके नापने लगे! दुनिया में नाप-तौल की बात की है। मुनियों ने बहुत कोशिश की, पर ईश्वर में कोई वजन नहीं मिला कि ईश्वर का कितना वजन है। ये लेबोरेटरी में तो वजन ही ढूँढ़ेंगे न! और वजन नहीं है तो मैटर ही नहीं-द्रव्य ही नहीं है। कितनी लम्बाई-चैड़ाई है ईश्वर में? किसी के ढूँढ़े नहीं मिला। कितनी उम्र है ईश्वर की? यह भी ढूँढ़ने से नहीं मिली। उम्र न मिलना माने ईश्वर में काम का अभाव है। लम्बाई-चैड़ाई न मिलना माने देश का अभाव है ईश्वर में; और वजन का न मिलना माने द्रव्य का अभाव है ईश्वर में। तब यह अभाव ही अभाव है-नहीं; अभाव प्रकाशित किससे होता है, इसका साक्षी कौन है? चैतनयरूप अधिष्ठान या चैतन्यरूप प्रकाश के बिना तो अभाव की भी सिद्धि नहीं हो सकती। ईश्वर को यदि जानना है तो वजन के माप से मत जानो। देश की लम्बाई-चैड़ाई मापकर मत जानो। उम्र मापकर मत जानो। क्या-से-क्या तक? तब, जरा अपनी ओर नजर डालो। जब तक अपने आपको इस शरीर में रहने वाले अपने आपका नहीं जानेंगे तब तक आपको यह कैसे ज्ञात होगा कि ईश्वर के सिवाय दूसरी कोई वस्तु नहीं है। ‘मत्तः परतरं नान्यत्’ ‘अहं कृत्स्त्रस्य प्रभवः’। कैसे समझेंगे? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 15.7
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