गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-3 : अध्याय 6
प्रवचन : 5
अब ‘सम’ में जो ‘म’ है। उसका दूसरा अर्थ देखो। म माने लक्ष्मी। माधव माने लक्ष्मीपति। मतलब यह कि आपकी बुद्धि में जो लक्ष्मी है, उदारता है, वह न खोवे। आप शत्रु के प्रति भी उदार हों, मित्र के प्रति भी उदार हों। उदारता आपका सद्गुण है। पहले मैं दण्डी था। दण्डियों में यह मर्यादा है कि किसको प्रणाम करें, किसको न करें। मैंने उड़िया बाबा जी से पूछा कि मै क्या करूँ तो बोले कि, प्रणाम सबको करना चाहिए। प्रणाम करना सद्गुण है, विनय है। वह अपने पास बना रहना चहिए। तीसरी बात देखो। ‘सम’ माने समान। संस्कृत में समान का अर्थ होता है, मान सहित प्रमाणयुक्त अर्थात हमारी बुद्धि प्रामाणिक रहनी चाहिए। उचित-अनुचित का विचार करके जो उचित हो उसे ही ग्रहण करना चाहिए। बुद्धि का यह कर्तव्य है कि वह उचित का परित्याग कभी न करे उसके सामने चाहे कोई भी हो, कैसी भी परिस्थिति हो। जिसने उचित का छोड़ दिया, जिससे औचित्य अलग हो गया, उसके जीवन में कोई रस नहीं रहेगा- अनौचित्यादृते नास्ति रसभंगस्य कारणम्। कविलोग रसभंग का एक ही कारण मानते हैं अनौचित्य। उनका कहना है कि अनौचित्य न होने पर रसभंग कदापि नहीं होता। हमारे जीवन में एक मानक होना चाहिए। व्यापरी लोगों के पास तौलने का जो बाट होता है, वह बिल्कुल ठीक होता है। हमने बचपन में अपने गाँव के एक बनिये से सुना था कि बेटा, मुनाफा तो तौलने में जितनी चतुराई की जाये, उसमें है। हमने भी तराजू से तौला है। घर में अनाज पैदा होता था, इसलिए कभी-कभी तौलना पड़ता था। तौलते समय जरा-सी मुट्टी दबा देने पर तराजू बिल्कुल टेढा हो जाता है। इसी तरह कपड़ा बेचने वाले व्यापरी गज से कपड़ा नापते हैं तो कपड़ा बचा लेते हैं। तो हमारी बुद्धि का जो मानक है वह बिल्कुल बराबर रहना चाहिए। हम नाप-तौल में, विचार में, औचित्य में गड़बड़ न करें। यह विशिष्ट व्यक्ति की पहचान है। जैसा कि पहले भी बताया गया, पुरुषार्थ चार होते हैं। उनमें-से एक होता है अर्थ। अर्थ माने धन। यह धन मनुष्य का समग्र जीवन नहीं है, अपितु जीवन के एक अंश का नाम धन है। वह बाहर रह कर मनुष्य की सेवा भी करता है और अभिमान भी बढ़ाता है। वह चाहे द्रव्य के रूप में हो, अन्न के रूप में हो अथवा मकान आदि के रूप में हो। उसका अस्तित्व शरीर के बाहर है। किन्तु पुरुषार्थ - चतुष्टय में जो काम है, वह शरीर से बाहर नहीं होता। धन की अपेक्षा काम अन्तरंग है कामना मन में रहती है। अन्त न तो काम-पिपासा का है और न धन-पिपासा का। व्यास भगवान कहते हैं कि प्यास का अन्त नहीं- अन्तो नास्ति पिपासायाः। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
क्रमांक | प्रवचन | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज