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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">'''भाग-3 : अध्याय 6'''</div> | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">'''भाग-3 : अध्याय 6'''</div> | ||
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">'''प्रवचन : 5'''</div> | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">'''प्रवचन : 5'''</div> | ||
− | आप लोग करो तो योगाभ्यास और चाहो कि हमारा चाम चिकना हो जाये, पेट छोटा हो जाये और कमर पतली-पतली हो जाये तो आपका साधन और उसका फल | + | आप लोग करो तो योगाभ्यास और चाहो कि हमारा चाम चिकना हो जाये, पेट छोटा हो जाये और कमर पतली-पतली हो जाये तो आपका साधन और उसका फल परस्पर विरुद्ध धर्माश्रयी हो जायेगा। आप कर रहे हो आन्तर अभ्यास, योग साधन और उसका फल ला रहे हो बाहर। असल में साधन किया जाता है बाहर और उसका फल है अन्तर में। इस बात पर लोगों का ध्यान नहीं जाता। जो नुमायशी लोग हैं, जिसका प्रदर्शन भरी सभा में किया जाता है, वह शरीर के लिए ठीक होगा- आपका कोई रोग दूर कर देगा, पर योग का वास्तविक फल बुद्धि का शोधन नहीं होगा। |
अच्छा अब आप ‘यतचित्तात्मा’ को लीजिए। जिस समय आप अपने आप में बैठे, उस समय आपका मन, आपकी इन्द्रियाँ नियमित हों। बैठने का स्थान भी शुद्ध होना चाहिए- | अच्छा अब आप ‘यतचित्तात्मा’ को लीजिए। जिस समय आप अपने आप में बैठे, उस समय आपका मन, आपकी इन्द्रियाँ नियमित हों। बैठने का स्थान भी शुद्ध होना चाहिए- | ||
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− | ; | + | ;शुचौ देशे प्रतिष्ठास्य स्थिरमासनमात्मन।<ref> 6.11</ref><br /> |
;उपविश्यासने युंज्याद्योगमात्मविशुद्धये।।<ref> 6.12</ref></poem> | ;उपविश्यासने युंज्याद्योगमात्मविशुद्धये।।<ref> 6.12</ref></poem> | ||
आप जहाँ बैठकर खाते हैं, सोते है, तमोगुणी-रजोगुणी कार्य करते है, वहाँ बैठकर भी योग नहीं करना चाहिए। यदि कहो कि यहाँ बैठकर दानादि पुण्य-कर्म करते हो, वह स्थान कैसा हो, तो दान करना दूसरी कक्षा है और बुद्धि का शुद्ध रखने के लिए अभ्यास करना दूसरी कक्षा है। स्थान पवित्र होना चाहिए, जहाँ जूठा न गिरा हो, भोग-वासना और लोभ-वासना के संस्कार न हों। एकान्त और पवित्र स्थान होना चाहिए। | आप जहाँ बैठकर खाते हैं, सोते है, तमोगुणी-रजोगुणी कार्य करते है, वहाँ बैठकर भी योग नहीं करना चाहिए। यदि कहो कि यहाँ बैठकर दानादि पुण्य-कर्म करते हो, वह स्थान कैसा हो, तो दान करना दूसरी कक्षा है और बुद्धि का शुद्ध रखने के लिए अभ्यास करना दूसरी कक्षा है। स्थान पवित्र होना चाहिए, जहाँ जूठा न गिरा हो, भोग-वासना और लोभ-वासना के संस्कार न हों। एकान्त और पवित्र स्थान होना चाहिए। | ||
− | बैठने के आसन की भी प्रतिष्ठा करनी चाहिए। बार-बार आसन हटाना ठीक नहीं है। जैसे मूर्ति में देवता की प्राण-प्रतिष्ठा होती है वैसे ही आसन की भी प्रतिष्ठा करनी चाहिए। आसन स्थिर हो और अपना हो, पराये का न हो। उस पर दूसरे के बैठने का संस्कार न हो। आदमी जहाँ बैठता है वहाँ उसके शरीर में-से तन्मात्राएँ निकलकर व्याप्त हो जाती हैं। ध्यान के लिए दूसरे का घर भी न हो तो अच्छा है। अपना घर हो, नदी-तट हो, पर्वत हो, वन हो तो ध्यान में सहायक हैं। | + | बैठने के आसन की भी प्रतिष्ठा करनी चाहिए। बार-बार आसन हटाना ठीक नहीं है। जैसे [[मूर्ति]] में [[देवता]] की प्राण-प्रतिष्ठा होती है वैसे ही आसन की भी प्रतिष्ठा करनी चाहिए। आसन स्थिर हो और अपना हो, पराये का न हो। उस पर दूसरे के बैठने का संस्कार न हो। आदमी जहाँ बैठता है वहाँ उसके शरीर में-से तन्मात्राएँ निकलकर व्याप्त हो जाती हैं। ध्यान के लिए दूसरे का घर भी न हो तो अच्छा है। अपना घर हो, नदी-तट हो, पर्वत हो, वन हो तो ध्यान में सहायक हैं। |
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[[चित्र:Next.png|right|link=गीता दर्शन -अखण्डानन्द सरस्वती पृ. 389]] | [[चित्र:Next.png|right|link=गीता दर्शन -अखण्डानन्द सरस्वती पृ. 389]] |
17:17, 3 फ़रवरी 2018 के समय का अवतरण
गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-3 : अध्याय 6
प्रवचन : 5
आप लोग करो तो योगाभ्यास और चाहो कि हमारा चाम चिकना हो जाये, पेट छोटा हो जाये और कमर पतली-पतली हो जाये तो आपका साधन और उसका फल परस्पर विरुद्ध धर्माश्रयी हो जायेगा। आप कर रहे हो आन्तर अभ्यास, योग साधन और उसका फल ला रहे हो बाहर। असल में साधन किया जाता है बाहर और उसका फल है अन्तर में। इस बात पर लोगों का ध्यान नहीं जाता। जो नुमायशी लोग हैं, जिसका प्रदर्शन भरी सभा में किया जाता है, वह शरीर के लिए ठीक होगा- आपका कोई रोग दूर कर देगा, पर योग का वास्तविक फल बुद्धि का शोधन नहीं होगा। अच्छा अब आप ‘यतचित्तात्मा’ को लीजिए। जिस समय आप अपने आप में बैठे, उस समय आपका मन, आपकी इन्द्रियाँ नियमित हों। बैठने का स्थान भी शुद्ध होना चाहिए- आप जहाँ बैठकर खाते हैं, सोते है, तमोगुणी-रजोगुणी कार्य करते है, वहाँ बैठकर भी योग नहीं करना चाहिए। यदि कहो कि यहाँ बैठकर दानादि पुण्य-कर्म करते हो, वह स्थान कैसा हो, तो दान करना दूसरी कक्षा है और बुद्धि का शुद्ध रखने के लिए अभ्यास करना दूसरी कक्षा है। स्थान पवित्र होना चाहिए, जहाँ जूठा न गिरा हो, भोग-वासना और लोभ-वासना के संस्कार न हों। एकान्त और पवित्र स्थान होना चाहिए। बैठने के आसन की भी प्रतिष्ठा करनी चाहिए। बार-बार आसन हटाना ठीक नहीं है। जैसे मूर्ति में देवता की प्राण-प्रतिष्ठा होती है वैसे ही आसन की भी प्रतिष्ठा करनी चाहिए। आसन स्थिर हो और अपना हो, पराये का न हो। उस पर दूसरे के बैठने का संस्कार न हो। आदमी जहाँ बैठता है वहाँ उसके शरीर में-से तन्मात्राएँ निकलकर व्याप्त हो जाती हैं। ध्यान के लिए दूसरे का घर भी न हो तो अच्छा है। अपना घर हो, नदी-तट हो, पर्वत हो, वन हो तो ध्यान में सहायक हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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