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01:06, 1 जनवरी 2018 का अवतरण
गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-3 : अध्याय 6
प्रवचन : 5
हम को यह चाहिए, वह चाहिए, इसमें सुख है, उसमें सुख है। दोनो की भूख बढ़ती जाती है। अन्तर ही है कि अर्थ बाहर से बढता है, प्यास भीतर से बढ़ती जाती है। तो जिन्दगी में इन दोनों की होड़ लग गयी है। इसलिए। उनपर काबू रखना चाहिए। तीसरा पुरुषार्थ है धर्म। यह कहाँ रहता है? बुद्धि में रहता है। यही योग्य और अयोग्य का, उचित और अनुचित का निर्णय करता है। धर्म बुद्धि में रहकर अर्थ और काम दोनों के विस्तार को धारण करता है और उन पर नियन्त्रण रखने की कला सिखाता है। अधिक धन अथवा अधिक भोगवासना जीवन की कला नहीं है। जीवन की सच्ची कला का निवास तो सम बुद्धि में हैं। आप विषिष्ट पुरुष तभी बन सेकेंगे जब आपकी बुद्धि उबड़-खाबड़ नहीं होगी। अर्थ और काम तो आत-जाते हैं। बुद्धि का धर्म है कि वह उनके आने के दिन भी ठीक रहे और जाने के दिन भी ठीक रहे। मिलने में भी ठीक और बिछुड़ने में भी ठीक। इसलिए हमारे भगवान् श्रीकृष्ण अपने भक्तों की बुद्धि में बैठकर काम करते हैं। देवता लोग हाथ में लठिया लेकर अपने भक्तों की रक्षा नहीं करते। वे जिसकी रक्षा करना चाहते है, प्रभु उसको सद्बुद्धि दे देते हैं, युक्ति बता देवता हैं। दिखता नही और हमारा मंगल हमारे सामने आ जाता है। देवता का यह स्वभाव है कि वह हमारी बुद्धि को ठीक करता है, प्रेरणा देता है, स्फुराण प्रदान करता है, मार्ग बताता है-
हम बुद्धि सम्बन्धी बातों का ज्यादा विस्तार नहीं करना चाहते। कई विद्वानों का तो ऐसा विचार हे कि गीता में प्रधानता न ज्ञानयोग की है, न भक्ति योग की, न संख्यायोग की, न कर्मयोग की, न अनासक्ति योग की, न पूर्णयोग की, न राजयोग की और न राधिराजयोग की, विशेषता है तो केवल बुद्धियोग की। यदि आप बुद्धियुक्त हैं तो पाप-पुण्य से बचने का उपाय आपको मालूम है- बुद्धियुक्तो जहाती उभेसुकृतदुष्कते। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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