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− | यह बात भी दूसरे | + | यह बात भी दूसरे मज़हबों में नहीं कि परमात्मा को केवल जानने मात्र से [[शान्ति]] की प्राप्ति होती है '''ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति।''' कोई कहता है कि मेरे पास आओ, तुम्हें शान्ति मिलेगी। कोई कहता है कि मेरी बात मानों, तुम्हें शान्ति मिलेगी। कोई कहता है कि मेरे अनुयायी के पीछे चलो, तुम्हे शान्ति मिलेगी। केवल जान लो, पहचान लो। जानना और पहचानना एक ही बात है। |
− | अब आपको तीन बात सुनाते हैं। ईश्वर भोजन क्या करता है? भोक्तारं यज्ञपतसां यह यज्ञ और तपस्या का भोजन करता है। ईश्वर क्या करता है? सर्वलोकमहेश्वरम् सम्पूर्ण विश्व सृष्टि पर शासन। वह शास्ता है। तीसरी बात यह है कि उसका स्वभाव कैसा है? सुहृदं सर्वभूतनां वह सबका सुहृद् है। इन तीनों बातों को आप केवल जान लो, पहचान लो और अनुभव करो। | + | अब आपको तीन बात सुनाते हैं। [[ईश्वर]] भोजन क्या करता है? '''भोक्तारं यज्ञपतसां''' यह [[यज्ञ]] और [[तपस्या]] का भोजन करता है। ईश्वर क्या करता है? '''सर्वलोकमहेश्वरम्''' सम्पूर्ण विश्व सृष्टि पर शासन। वह शास्ता है। तीसरी बात यह है कि उसका स्वभाव कैसा है? '''सुहृदं सर्वभूतनां''' वह सबका सुहृद् है। इन तीनों बातों को आप केवल जान लो, पहचान लो और अनुभव करो। |
− | पहले ईश्वर के भोजन की बात सुनाते हैं। उसका आहार यज्ञ और तपस्या है। यज्ञ माने दूसरों को खिलाना- यह सीधा सादा अर्थ है यज्ञ का। उसमें सामग्री इकट्ठा करके शूद्र खाता है। उत्पादन, वितरण और विनिपय के द्वारा वैश्य खाता है। रक्षा करके क्षत्रिय खाता है। | + | पहले ईश्वर के भोजन की बात सुनाते हैं। उसका आहार यज्ञ और तपस्या है। [[यज्ञ]] माने दूसरों को खिलाना- यह सीधा सादा अर्थ है यज्ञ का। उसमें सामग्री इकट्ठा करके [[शूद्र]] खाता है। उत्पादन, वितरण और विनिपय के द्वारा [[वैश्य]] खाता है। रक्षा करके [[क्षत्रिय]] खाता है। वेद मन्त्र पढ़कर [[ब्राह्मण]] खाता है। सबके अपने-अपने कर्तव्य कर्मो के पालन द्वारा यज्ञ सम्पन्न होता है। इसका अर्थ यह है कि सबको भोजन देना ही ईश्वर को खिलाना है। ईश्वर अपने लिए थाली लगाकर, मेजपर बैठकर, अलग से भोजन नहीं करता। आप जो यज्ञ करते हैं, आप जो दूसरों को खिलाते हैं, वहीं ईश्वर भोजन है। यज्ञ में पशुओं का भी हिस्सा होता है, पक्षियों का भी हिस्सा होता है। गाय को भी हिस्सा देते हैं, कौए को भी देते हैं, दिशाओं को भी देते हैं। यज्ञ में वायु का भी अंश है, वह सुगन्ध जो फैलाती है। |
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15:14, 22 दिसम्बर 2017 का अवतरण
गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-3 : अध्याय 6
प्रवचन : 1 अब साधन की बात देखो- भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्। यह बात भी दूसरे मज़हबों में नहीं कि परमात्मा को केवल जानने मात्र से शान्ति की प्राप्ति होती है ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति। कोई कहता है कि मेरे पास आओ, तुम्हें शान्ति मिलेगी। कोई कहता है कि मेरी बात मानों, तुम्हें शान्ति मिलेगी। कोई कहता है कि मेरे अनुयायी के पीछे चलो, तुम्हे शान्ति मिलेगी। केवल जान लो, पहचान लो। जानना और पहचानना एक ही बात है। अब आपको तीन बात सुनाते हैं। ईश्वर भोजन क्या करता है? भोक्तारं यज्ञपतसां यह यज्ञ और तपस्या का भोजन करता है। ईश्वर क्या करता है? सर्वलोकमहेश्वरम् सम्पूर्ण विश्व सृष्टि पर शासन। वह शास्ता है। तीसरी बात यह है कि उसका स्वभाव कैसा है? सुहृदं सर्वभूतनां वह सबका सुहृद् है। इन तीनों बातों को आप केवल जान लो, पहचान लो और अनुभव करो। पहले ईश्वर के भोजन की बात सुनाते हैं। उसका आहार यज्ञ और तपस्या है। यज्ञ माने दूसरों को खिलाना- यह सीधा सादा अर्थ है यज्ञ का। उसमें सामग्री इकट्ठा करके शूद्र खाता है। उत्पादन, वितरण और विनिपय के द्वारा वैश्य खाता है। रक्षा करके क्षत्रिय खाता है। वेद मन्त्र पढ़कर ब्राह्मण खाता है। सबके अपने-अपने कर्तव्य कर्मो के पालन द्वारा यज्ञ सम्पन्न होता है। इसका अर्थ यह है कि सबको भोजन देना ही ईश्वर को खिलाना है। ईश्वर अपने लिए थाली लगाकर, मेजपर बैठकर, अलग से भोजन नहीं करता। आप जो यज्ञ करते हैं, आप जो दूसरों को खिलाते हैं, वहीं ईश्वर भोजन है। यज्ञ में पशुओं का भी हिस्सा होता है, पक्षियों का भी हिस्सा होता है। गाय को भी हिस्सा देते हैं, कौए को भी देते हैं, दिशाओं को भी देते हैं। यज्ञ में वायु का भी अंश है, वह सुगन्ध जो फैलाती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 5.9
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