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− | यदि हम किसी मूर्ति की पूजा कर रहे हैं तो वह मूर्ति पत्थर है, सोना है, चाँदी है, ताँबा है, किसकी मूर्ति है और उसमें ईश्वर है या वह स्वयं ईश्वर-यह सब भी कान से सुनना ही पड़ता है। बिना श्रवण के कोई मूर्ति का दर्शन करे तो उसमें उसका ईश्वर-भाव नहीं हो सकता। इसलिए भक्ति का मूल रूप श्रवण में ही निहित है। श्रवण क्या करता है? कि किसी-न-किसी रूप में | + | यदि हम किसी [[मूर्ति]] की [[पूजा]] कर रहे हैं तो वह मूर्ति पत्थर है, सोना है, चाँदी है, ताँबा है, किसकी मूर्ति है और उसमें [[ईश्वर]] है या वह स्वयं ईश्वर-यह सब भी कान से सुनना ही पड़ता है। बिना श्रवण के कोई मूर्ति का दर्शन करे तो उसमें उसका ईश्वर-भाव नहीं हो सकता। इसलिए [[भक्ति]] का मूल रूप श्रवण में ही निहित है। श्रवण क्या करता है? कि किसी-न-किसी रूप में प्रेम तो आपके हृदय में है। यदि बीज नहीं हो तो काम नहीं बने। आसक्ति सबके हृदय में रहती है। कोई बच्चे से आसक्ति करता है। कोई शरीर से आसक्ति करता है कोई अपनी योग्य वस्तु से आसक्ति करता है। |
− | आसक्ति अन्तःकरण का सहज स्वभाव है। तो संसार में जो आसक्ति है, उसकी जगह पर ईश्वर में आसक्ति उत्पन्न करने के लिए श्रवण की आवश्यकता पड़ती है। जो ईश्वर के बारे में श्रवण नहीं करेगा, उसके हृदय में | + | आसक्ति अन्तःकरण का सहज स्वभाव है। तो संसार में जो आसक्ति है, उसकी जगह पर ईश्वर में आसक्ति उत्पन्न करने के लिए श्रवण की आवश्यकता पड़ती है। जो ईश्वर के बारे में श्रवण नहीं करेगा, उसके हृदय में भगवान की भक्ति नहीं आयेगी। एकान्त में बैठने पर भी, जप करने पर भी, ध्यान करने पर भी जितना आपको मालूम है, वही बात आपके दिमाग में घूमेगी, उससे अधिक जानकारी नहीं प्राप्त हो सकेगी। अद्भुत बात यह है कि जहाँ बौद्ध और जैनों का एक-एक व्यक्ति ईश्वर है और वे भी दुनिया में बहुत थोडे हुए है तथा ईसाई, मुसलमान का ईश्वर निराकार है, वहाँ वैदिक धर्म के अनुसार ईश्वर को न एक व्यक्ति में सीमित रखा गया है और न उसको केवल निराकार करके छोड़ दिया गया है। |
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+ | हमारी जो एक-एक व्यक्ति में, जाति में, मज़हब में आसक्ति है और जिसके कारण हम बहुत अनर्थ करते हैं, मोहवश भाई-भतीजों के प्रति, अपने मज़हबवालों के प्रति पक्षपात करते हैं और मज़हबी लड़ाइयाँ लड़ते हैं, यह सब ईश्वर का रहस्य न जानने के कारण ही है। मजहब की आसक्ति, जाति की आसक्ति, पन्थ की आसक्ति, राष्ट्र की आसक्ति, भाषा की आसक्ति मनुष्य की बुद्धि को संकीर्ण बना देती है, उदीर्ण नहीं होने देती। यहाँ तक कि भक्ति-सम्प्रदायों में भी ईश्वर और ईश्वर की [[पूजा]] को एकांगी बनाकर लड़ाई करने की प्रवृत्ति आ जाती है। किन्तु हमारे वैदिक धर्म का जो परमेश्वर है, वह बहुत उदार है। अर्थात वह सबमें है, सब जगह है और सबका संचालन कर रहा है। [[गीता]] कहती है- | ||
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− | + | '''यत: प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम् ।''' | |
− | + | '''स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानव ॥'''<ref>श्लोक-18.46</ref></poem> | |
− | संसार के समस्त प्राणी जिससे प्रेरित होकर अपने-अपने कर्म में प्रवृत्त हो रहे हैं, जिससे चींटी चल रही है, चिड़िया उड़ रही है, मछली तैर रही है और मनुष्य नाना प्रकार के कर्म कर रहा है, जिससे पंखा चल रहा है, बल्ब में रोशनी हो रही है, हीटर जल रहा है, रेफ्रीजेटर ठण्डा कर रहा है, अलग-अलग यन्त्र अपना-अपना काम कर रहे हैं और जिसके द्वारा सम्पूर्ण भूतों की प्रवृत्ति हो रही है, जो-‘अन्तःप्रविष्टः शास्ता जनानां’-सबके भीतर रहकर सबका संचालन कर रहा है, वही ईश्वर है किन्तु ईश्वर के इस रूप का पता तो प्रायः सभी ईश्वरवादियों को है। | + | संसार के समस्त प्राणी जिससे प्रेरित होकर अपने-अपने [[कर्म]] में प्रवृत्त हो रहे हैं, जिससे चींटी चल रही है, चिड़िया उड़ रही है, मछली तैर रही है और मनुष्य नाना प्रकार के कर्म कर रहा है, जिससे पंखा चल रहा है, बल्ब में रोशनी हो रही है, हीटर जल रहा है, रेफ्रीजेटर ठण्डा कर रहा है, अलग-अलग यन्त्र अपना-अपना काम कर रहे हैं और जिसके द्वारा सम्पूर्ण भूतों की प्रवृत्ति हो रही है, जो- ‘अन्तःप्रविष्टः शास्ता जनानां’- सबके भीतर रहकर सबका संचालन कर रहा है, वही [[ईश्वर]] है किन्तु ईश्वर के इस रूप का पता तो प्रायः सभी ईश्वरवादियों को है। |
| style="vertical-align:bottom;"| [[चित्र:Next.png|right|link=गीता दर्शन -अखण्डानन्द सरस्वती पृ. 328]] | | style="vertical-align:bottom;"| [[चित्र:Next.png|right|link=गीता दर्शन -अखण्डानन्द सरस्वती पृ. 328]] | ||
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16:29, 21 दिसम्बर 2017 का अवतरण
गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-2 : अध्याय 5
प्रवचन : 12
यदि हम किसी मूर्ति की पूजा कर रहे हैं तो वह मूर्ति पत्थर है, सोना है, चाँदी है, ताँबा है, किसकी मूर्ति है और उसमें ईश्वर है या वह स्वयं ईश्वर-यह सब भी कान से सुनना ही पड़ता है। बिना श्रवण के कोई मूर्ति का दर्शन करे तो उसमें उसका ईश्वर-भाव नहीं हो सकता। इसलिए भक्ति का मूल रूप श्रवण में ही निहित है। श्रवण क्या करता है? कि किसी-न-किसी रूप में प्रेम तो आपके हृदय में है। यदि बीज नहीं हो तो काम नहीं बने। आसक्ति सबके हृदय में रहती है। कोई बच्चे से आसक्ति करता है। कोई शरीर से आसक्ति करता है कोई अपनी योग्य वस्तु से आसक्ति करता है। आसक्ति अन्तःकरण का सहज स्वभाव है। तो संसार में जो आसक्ति है, उसकी जगह पर ईश्वर में आसक्ति उत्पन्न करने के लिए श्रवण की आवश्यकता पड़ती है। जो ईश्वर के बारे में श्रवण नहीं करेगा, उसके हृदय में भगवान की भक्ति नहीं आयेगी। एकान्त में बैठने पर भी, जप करने पर भी, ध्यान करने पर भी जितना आपको मालूम है, वही बात आपके दिमाग में घूमेगी, उससे अधिक जानकारी नहीं प्राप्त हो सकेगी। अद्भुत बात यह है कि जहाँ बौद्ध और जैनों का एक-एक व्यक्ति ईश्वर है और वे भी दुनिया में बहुत थोडे हुए है तथा ईसाई, मुसलमान का ईश्वर निराकार है, वहाँ वैदिक धर्म के अनुसार ईश्वर को न एक व्यक्ति में सीमित रखा गया है और न उसको केवल निराकार करके छोड़ दिया गया है। हमारी जो एक-एक व्यक्ति में, जाति में, मज़हब में आसक्ति है और जिसके कारण हम बहुत अनर्थ करते हैं, मोहवश भाई-भतीजों के प्रति, अपने मज़हबवालों के प्रति पक्षपात करते हैं और मज़हबी लड़ाइयाँ लड़ते हैं, यह सब ईश्वर का रहस्य न जानने के कारण ही है। मजहब की आसक्ति, जाति की आसक्ति, पन्थ की आसक्ति, राष्ट्र की आसक्ति, भाषा की आसक्ति मनुष्य की बुद्धि को संकीर्ण बना देती है, उदीर्ण नहीं होने देती। यहाँ तक कि भक्ति-सम्प्रदायों में भी ईश्वर और ईश्वर की पूजा को एकांगी बनाकर लड़ाई करने की प्रवृत्ति आ जाती है। किन्तु हमारे वैदिक धर्म का जो परमेश्वर है, वह बहुत उदार है। अर्थात वह सबमें है, सब जगह है और सबका संचालन कर रहा है। गीता कहती है- यत: प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम् । संसार के समस्त प्राणी जिससे प्रेरित होकर अपने-अपने कर्म में प्रवृत्त हो रहे हैं, जिससे चींटी चल रही है, चिड़िया उड़ रही है, मछली तैर रही है और मनुष्य नाना प्रकार के कर्म कर रहा है, जिससे पंखा चल रहा है, बल्ब में रोशनी हो रही है, हीटर जल रहा है, रेफ्रीजेटर ठण्डा कर रहा है, अलग-अलग यन्त्र अपना-अपना काम कर रहे हैं और जिसके द्वारा सम्पूर्ण भूतों की प्रवृत्ति हो रही है, जो- ‘अन्तःप्रविष्टः शास्ता जनानां’- सबके भीतर रहकर सबका संचालन कर रहा है, वही ईश्वर है किन्तु ईश्वर के इस रूप का पता तो प्रायः सभी ईश्वरवादियों को है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्लोक-18.46
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