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− | हमारे मन को शान्ति तभी मिलेगी, जब यह जहाँ से उठकर बाहर भागना चाहता है वहाँ निश्चल होकर बैठ जाये। यदि यह फड़फड़ाने में, भागने की कोशिश में शान्ति का अनुभव करना चाहेगा तो कभी शान्त नहीं हो सकता। तो | + | हमारे मन को [[शान्ति]] तभी मिलेगी, जब यह जहाँ से उठकर बाहर भागना चाहता है वहाँ निश्चल होकर बैठ जाये। यदि यह फड़फड़ाने में, भागने की कोशिश में शान्ति का अनुभव करना चाहेगा तो कभी शान्त नहीं हो सकता। तो भगवान ने तीन बातें बतायीं। एक तो यह कि दुनियादार लोग जिसको सुख समझते हैं, उसी में से दुःख निकलता है। दूसरी यह कि ये आने-जाने वाले हैं, नाशवान हैं। और, तीसरी यह कि इनमें बुद्धिमान नहीं फँसते। आप संसार का इतिहास देख जाइये, यहाँ जितने भी सच्चे, शिष्ट सत्पुरुष हुए हैं, वे इन भोगों में नहीं रमे। भोग में रमकर मनुष्य सुखी नहीं हो सकता। सच्चा मनुष्य गुस्सा आने पर सहने की कोशिश करता है, कुछ बोलता नहीं। किन्तु कोई गुण्डा होता है तो कहता है मैंने गुस्सा आने पर बच्चू को खूब सुनाया। इन दोनों में-से आप किसको पसन्द करते है? अपने आपको तौल लीजिये। निश्चय ही आप गुस्सा सहने वाला को पसन्द करते हैं- |
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− | + | '''शक्नोतीहैव य साढुं प्राक् शरीरविमोक्षणात्।''' | |
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− | हम आपको पहले सुना चुके हैं कि गीता जंगल में भागने के लिए नहीं, जीवन-युद्ध में अग्रसर होने के लिए है। अर्जुन जीवन-युद्ध से भागना चाहता था, किन्तु | + | हम आपको पहले सुना चुके हैं कि [[गीता]] जंगल में भागने के लिए नहीं, जीवन-युद्ध में अग्रसर होने के लिए है। [[अर्जुन]] जीवन-युद्ध से भागना चाहता था, किन्तु भगवान ने कहा- नहीं, नहीं, तुम जीवन के इस युद्ध से, संग्राम से पलायन नहीं कर सकते। पलायनवादी होना अच्छा नहीं। जो तकलीफ तुम्हारे सामने आयी है, उसका सामना करो। भागने से कैसे काम चलेगा? तुम अच्छे-से-अच्छे की उम्मीद रखो और बुरे-से-बुरे का सामना करने के लिए तैयार हो जाओ- '''उत्तिष्ठित जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।''' उठो जागो और बड़ों के पास जाकर जानों कि तुम्हारा क्या कर्तव्य है। |
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12:48, 21 दिसम्बर 2017 का अवतरण
गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-2 : अध्याय 5
प्रवचन : 10
इसलिए सुप्रसिद्ध शायर जौक के शब्दों में- जिस सिर का है यह बाल उसी सिर में जोड़ दो। हमारे मन को शान्ति तभी मिलेगी, जब यह जहाँ से उठकर बाहर भागना चाहता है वहाँ निश्चल होकर बैठ जाये। यदि यह फड़फड़ाने में, भागने की कोशिश में शान्ति का अनुभव करना चाहेगा तो कभी शान्त नहीं हो सकता। तो भगवान ने तीन बातें बतायीं। एक तो यह कि दुनियादार लोग जिसको सुख समझते हैं, उसी में से दुःख निकलता है। दूसरी यह कि ये आने-जाने वाले हैं, नाशवान हैं। और, तीसरी यह कि इनमें बुद्धिमान नहीं फँसते। आप संसार का इतिहास देख जाइये, यहाँ जितने भी सच्चे, शिष्ट सत्पुरुष हुए हैं, वे इन भोगों में नहीं रमे। भोग में रमकर मनुष्य सुखी नहीं हो सकता। सच्चा मनुष्य गुस्सा आने पर सहने की कोशिश करता है, कुछ बोलता नहीं। किन्तु कोई गुण्डा होता है तो कहता है मैंने गुस्सा आने पर बच्चू को खूब सुनाया। इन दोनों में-से आप किसको पसन्द करते है? अपने आपको तौल लीजिये। निश्चय ही आप गुस्सा सहने वाला को पसन्द करते हैं- शक्नोतीहैव य साढुं प्राक् शरीरविमोक्षणात्। हम आपको पहले सुना चुके हैं कि गीता जंगल में भागने के लिए नहीं, जीवन-युद्ध में अग्रसर होने के लिए है। अर्जुन जीवन-युद्ध से भागना चाहता था, किन्तु भगवान ने कहा- नहीं, नहीं, तुम जीवन के इस युद्ध से, संग्राम से पलायन नहीं कर सकते। पलायनवादी होना अच्छा नहीं। जो तकलीफ तुम्हारे सामने आयी है, उसका सामना करो। भागने से कैसे काम चलेगा? तुम अच्छे-से-अच्छे की उम्मीद रखो और बुरे-से-बुरे का सामना करने के लिए तैयार हो जाओ- उत्तिष्ठित जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत। उठो जागो और बड़ों के पास जाकर जानों कि तुम्हारा क्या कर्तव्य है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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