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इसी प्रसंग में तीसरी बात देखें। हमारे वैदिक धर्म का सार है हित। यदेव हिततमं- यह उपनिषद् बोलती है किसी का आपरेशन न करना पड़े यह बहुत बढ़िया बात, है इस भावना में अहिंसा है। रोगी को ऐसी दवा दे दो कि उसे दर्द न मालूम पड़े, आराम मिले, यह करुणा है किन्तु आपरेशन करने से दुःख दूर हो जाय तो आपरेशन करो, मीठा खिलाने से दुःख दूर हो जाय तो मीठा खिलाओ, कडवा खिलाने से दूःर हो तो कड़वा खिलाओं- यह वैदिक धर्म है। सृष्टि के अनादि अनन्त शास्त्र इतिहास में अनेक बार युद्ध और शान्ति के प्रसंग आते हैं काल अनादि है और हमेशा चलता रहता है। इसमें भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रसंग आते रहते हैं इसमें सबके हित की जो दृष्टि है वही वैदिक धर्म है। अहिंसा से सबका भला हो तो ठीक है, करुणा से सबका भला करो। सबकी भलाई के लिए आवश्यकता हो तो हिंसा आवश्यकता हो तो अहिंसा, आवश्यकता हो तो करुणा और आवश्यकता हो तो कठोरता करो। हित करुणा में भी है और कठोरता में भी! आप श्रीरामचन्द्र का चरित्र देख लें; श्रीकृष्ण का चरित्र देख लें, वे हितप्रधान हैं। | इसी प्रसंग में तीसरी बात देखें। हमारे वैदिक धर्म का सार है हित। यदेव हिततमं- यह उपनिषद् बोलती है किसी का आपरेशन न करना पड़े यह बहुत बढ़िया बात, है इस भावना में अहिंसा है। रोगी को ऐसी दवा दे दो कि उसे दर्द न मालूम पड़े, आराम मिले, यह करुणा है किन्तु आपरेशन करने से दुःख दूर हो जाय तो आपरेशन करो, मीठा खिलाने से दुःख दूर हो जाय तो मीठा खिलाओ, कडवा खिलाने से दूःर हो तो कड़वा खिलाओं- यह वैदिक धर्म है। सृष्टि के अनादि अनन्त शास्त्र इतिहास में अनेक बार युद्ध और शान्ति के प्रसंग आते हैं काल अनादि है और हमेशा चलता रहता है। इसमें भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रसंग आते रहते हैं इसमें सबके हित की जो दृष्टि है वही वैदिक धर्म है। अहिंसा से सबका भला हो तो ठीक है, करुणा से सबका भला करो। सबकी भलाई के लिए आवश्यकता हो तो हिंसा आवश्यकता हो तो अहिंसा, आवश्यकता हो तो करुणा और आवश्यकता हो तो कठोरता करो। हित करुणा में भी है और कठोरता में भी! आप श्रीरामचन्द्र का चरित्र देख लें; श्रीकृष्ण का चरित्र देख लें, वे हितप्रधान हैं। | ||
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01:33, 12 जून 2016 का अवतरण
गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-3 : अध्याय 6
प्रवचन : 2
तृष्णा बुद्धि का दोष है और कर्तव्यपथ से विचलित हो जाना कर्म का दोष है। कर्तव्य भी कर्म है अकर्तव्य भी कर्म है। दोनों हैं। परन्तु तृष्णा का समावेश हो जाना बुद्धि का दोष है। इसलिए गीता अनाश्रितः कर्मफलं- इस अर्द्धाली में बुद्धि के दोष का निवारण करती है और ‘कार्य कर्म करोति यः ‘में’ कार्य’; पद का प्रयोग करके कर्म के इस दोष का कि उसमें अकर्तव्य का समावेश न हो जाय, निवारण करती है। धृतराष्ट्र ने संजय को पाण्डवों के पास भेजा और संन्देश दिया कि श्रीकृष्ण से जाकर कहो, ये युद्ध टालने प्रयास करें। श्रीकृष्ण ने कहा कि सत्य को, न्याय को, धर्म को छोड़कर युद्ध न हो, इसके लिए हम प्रयास क्यों करें? सत्य छूट जाय, न्याय छूट जाय, यथार्थ छूट जाय, हित छूट जाय तो शान्ति कैसी ? मैं आपको तीन सूत्र सुनाता हूँ। जैन धर्म का सार है अहिंसा, बौद्धधर्म का सार है करुणा; दोनों बड़े अच्छे हैं। किसी को लेश-मात्र ताप या तकलीफ दिये बिना हम अपने आत्मामें स्थित हो जाँय, यह जैन धर्म का सार अहिंसा है। बौद्धधर्म का सार है कि हम केवल लोगों को दुःख पहुँचाने से नहीं बचें बल्कि हमारे हृदय में करुणा उमड़ पड़े और हम दूसरों को यहाँ तक पशु-पक्षियोँ को न देख सकें और उन्हें अपने हृदय से लगा लें। इसी प्रसंग में तीसरी बात देखें। हमारे वैदिक धर्म का सार है हित। यदेव हिततमं- यह उपनिषद् बोलती है किसी का आपरेशन न करना पड़े यह बहुत बढ़िया बात, है इस भावना में अहिंसा है। रोगी को ऐसी दवा दे दो कि उसे दर्द न मालूम पड़े, आराम मिले, यह करुणा है किन्तु आपरेशन करने से दुःख दूर हो जाय तो आपरेशन करो, मीठा खिलाने से दुःख दूर हो जाय तो मीठा खिलाओ, कडवा खिलाने से दूःर हो तो कड़वा खिलाओं- यह वैदिक धर्म है। सृष्टि के अनादि अनन्त शास्त्र इतिहास में अनेक बार युद्ध और शान्ति के प्रसंग आते हैं काल अनादि है और हमेशा चलता रहता है। इसमें भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रसंग आते रहते हैं इसमें सबके हित की जो दृष्टि है वही वैदिक धर्म है। अहिंसा से सबका भला हो तो ठीक है, करुणा से सबका भला करो। सबकी भलाई के लिए आवश्यकता हो तो हिंसा आवश्यकता हो तो अहिंसा, आवश्यकता हो तो करुणा और आवश्यकता हो तो कठोरता करो। हित करुणा में भी है और कठोरता में भी! आप श्रीरामचन्द्र का चरित्र देख लें; श्रीकृष्ण का चरित्र देख लें, वे हितप्रधान हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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