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<h3 style="text-align:center">'''गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज'''</h3> | <h3 style="text-align:center">'''गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज'''</h3> | ||
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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">'''भाग-3 : अध्याय 6'''</div> | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">'''भाग-3 : अध्याय 6'''</div> | ||
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">'''प्रवचन : 5'''</div> | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">'''प्रवचन : 5'''</div> | ||
− | यदि कहो कि अच्छा एक-दो दिन अथवा जब समय मिलेगा, तब अपने आप पर विचार कर लेंगे तो भगवान कहते हैं कि नहीं सततं अर्थात् | + | यदि कहो कि अच्छा एक-दो दिन अथवा जब समय मिलेगा, तब अपने आप पर विचार कर लेंगे तो भगवान कहते हैं कि नहीं सततं अर्थात् निरन्तर इसकी साधना करो। योग मरने के लिए नहीं होता, करने के लिए योग होता है। जो लोग निरन्तर शब्द का अर्थ चौबीस घण्टे समझते हैं, उनकी समझ तो बहुत अच्छी है। लेकिन जीवन में नींद भी तो है। यदि जागना है तो नींद भी लेना है मनुष्य के जीवन में खाना है, पीना है, चलना है, धर्म है, काम है। तो सततं का अर्थ है लगातार। |
− | अब आपको एक दूसरा अर्थ भी सुनाते है। रोज थोड़ा-थोड़ा समय निकालिए। काम करने का तो समय है, थोड़ा शान्ति से बैठने का समय भी निकालिए। आप सौ रुपयों में दस, पाँच अथवा एक रुपया दान करते है, कुछ-न-कुछ दिये बिना लेना बनता नहीं। जो देगा नहीं, उसका लेना बन्द हो जायेगा। यह | + | अब आपको एक दूसरा अर्थ भी सुनाते है। रोज थोड़ा-थोड़ा समय निकालिए। काम करने का तो समय है, थोड़ा शान्ति से बैठने का समय भी निकालिए। आप सौ रुपयों में दस, पाँच अथवा एक रुपया दान करते है, कुछ-न-कुछ दिये बिना लेना बनता नहीं। जो देगा नहीं, उसका लेना बन्द हो जायेगा। यह प्रकृति का नियम है। देकर ही ले सकते हैं। |
− | तो, आप अपने चौबीस घण्टे के समय में-से पाँच मिनट में एक मिनट के हिसाब से चौबीस मिनट ईश्वर के लिए निकालिए। अच्छा; चौबीस मिनट जाने दीजिए, चौदह मिनट ही निकालिए। बिलकुल शान्त। उस समय संसार की किसी भी वस्तु के साथ आपका सम्बन्ध न फुरे। आप क्या ऐसे व्यस्त हो गये हैं कि जड़ता को पाँच मिनट के लिए भी नहीं छोड़ सकते? बाहर से आने वाले दुःखदायी पदार्थों से अपने को कुछ क्षणों के लिए भी अलग नहीं कर सकते? यह काम सततं, लगातार, रोज-रोज होना चाहिए। इससे बड़ा लाभ होता है। | + | तो, आप अपने चौबीस घण्टे के समय में-से पाँच मिनट में एक मिनट के हिसाब से चौबीस मिनट [[ईश्वर]] के लिए निकालिए। अच्छा; चौबीस मिनट जाने दीजिए, चौदह मिनट ही निकालिए। बिलकुल शान्त। उस समय संसार की किसी भी वस्तु के साथ आपका सम्बन्ध न फुरे। आप क्या ऐसे व्यस्त हो गये हैं कि जड़ता को पाँच मिनट के लिए भी नहीं छोड़ सकते? बाहर से आने वाले दुःखदायी पदार्थों से अपने को कुछ क्षणों के लिए भी अलग नहीं कर सकते? यह काम सततं, लगातार, रोज-रोज होना चाहिए। इससे बड़ा लाभ होता है। |
− | एक मनुष्य था, उसने दस पन्ने रोज पढ़ने का नियम लिया। तीन सौ पन्नों की पुस्तक एक महीने में पूरी हुई। बारह महीने लगातार उसने नियम पालन किया तो हजारों पन्ने पढ़ गया। अगर यही नियम दस वर्षों तक पालन किया तो देखो कितना बड़ा पण्डित हो गया। केवल दस पन्ने प्रतिदिन पढ़ने से। तो आप भी प्रतिदिन अपना दस मिनट शान्ति से व्यतीत करें तो एक महीने में तीन सौ मिनट शान्ति के इकठ्ठे कर सकते हैं। इसी प्रकार बारह महीनों में तथा वर्षों में आपको प्रभूत शान्ति की प्राप्ति हो जायेगी। | + | एक मनुष्य था, उसने दस पन्ने रोज पढ़ने का नियम लिया। तीन सौ पन्नों की पुस्तक एक [[महीना|महीने]] में पूरी हुई। बारह महीने लगातार उसने नियम पालन किया तो हजारों पन्ने पढ़ गया। अगर यही नियम दस वर्षों तक पालन किया तो देखो कितना बड़ा पण्डित हो गया। केवल दस पन्ने प्रतिदिन पढ़ने से। तो आप भी प्रतिदिन अपना दस मिनट शान्ति से व्यतीत करें तो एक महीने में तीन सौ मिनट शान्ति के इकठ्ठे कर सकते हैं। इसी प्रकार बारह महीनों में तथा वर्षों में आपको प्रभूत शान्ति की प्राप्ति हो जायेगी। |
− | दूसरा प्रश्न यह है कि यह आत्मचिन्तन कहाँ बैठकर किया | + | दूसरा प्रश्न यह है कि यह आत्मचिन्तन कहाँ बैठकर किया जाये? इसका उत्तर यही है कि आप अपने किसी भी प्यारे इष्ट से मिलते हैं तो कहाँ मिलते हैं? न मुसाफ़िरखाने में मिलते हैं, न पार्क में। एकान्त में मिलते हैं। अतः प्रभु से भी एकान्त में मिलिए- पाँच मिनट, दस मिनट। एकान्त को ‘रहसि’ भी कहते हैं। ‘रहसि’ उलट दो तो रह का हर हो जाता है। तो एकान्त शिवरूप है। |
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17:07, 3 फ़रवरी 2018 के समय का अवतरण
गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-3 : अध्याय 6
प्रवचन : 5
यदि कहो कि अच्छा एक-दो दिन अथवा जब समय मिलेगा, तब अपने आप पर विचार कर लेंगे तो भगवान कहते हैं कि नहीं सततं अर्थात् निरन्तर इसकी साधना करो। योग मरने के लिए नहीं होता, करने के लिए योग होता है। जो लोग निरन्तर शब्द का अर्थ चौबीस घण्टे समझते हैं, उनकी समझ तो बहुत अच्छी है। लेकिन जीवन में नींद भी तो है। यदि जागना है तो नींद भी लेना है मनुष्य के जीवन में खाना है, पीना है, चलना है, धर्म है, काम है। तो सततं का अर्थ है लगातार। अब आपको एक दूसरा अर्थ भी सुनाते है। रोज थोड़ा-थोड़ा समय निकालिए। काम करने का तो समय है, थोड़ा शान्ति से बैठने का समय भी निकालिए। आप सौ रुपयों में दस, पाँच अथवा एक रुपया दान करते है, कुछ-न-कुछ दिये बिना लेना बनता नहीं। जो देगा नहीं, उसका लेना बन्द हो जायेगा। यह प्रकृति का नियम है। देकर ही ले सकते हैं। तो, आप अपने चौबीस घण्टे के समय में-से पाँच मिनट में एक मिनट के हिसाब से चौबीस मिनट ईश्वर के लिए निकालिए। अच्छा; चौबीस मिनट जाने दीजिए, चौदह मिनट ही निकालिए। बिलकुल शान्त। उस समय संसार की किसी भी वस्तु के साथ आपका सम्बन्ध न फुरे। आप क्या ऐसे व्यस्त हो गये हैं कि जड़ता को पाँच मिनट के लिए भी नहीं छोड़ सकते? बाहर से आने वाले दुःखदायी पदार्थों से अपने को कुछ क्षणों के लिए भी अलग नहीं कर सकते? यह काम सततं, लगातार, रोज-रोज होना चाहिए। इससे बड़ा लाभ होता है। एक मनुष्य था, उसने दस पन्ने रोज पढ़ने का नियम लिया। तीन सौ पन्नों की पुस्तक एक महीने में पूरी हुई। बारह महीने लगातार उसने नियम पालन किया तो हजारों पन्ने पढ़ गया। अगर यही नियम दस वर्षों तक पालन किया तो देखो कितना बड़ा पण्डित हो गया। केवल दस पन्ने प्रतिदिन पढ़ने से। तो आप भी प्रतिदिन अपना दस मिनट शान्ति से व्यतीत करें तो एक महीने में तीन सौ मिनट शान्ति के इकठ्ठे कर सकते हैं। इसी प्रकार बारह महीनों में तथा वर्षों में आपको प्रभूत शान्ति की प्राप्ति हो जायेगी। दूसरा प्रश्न यह है कि यह आत्मचिन्तन कहाँ बैठकर किया जाये? इसका उत्तर यही है कि आप अपने किसी भी प्यारे इष्ट से मिलते हैं तो कहाँ मिलते हैं? न मुसाफ़िरखाने में मिलते हैं, न पार्क में। एकान्त में मिलते हैं। अतः प्रभु से भी एकान्त में मिलिए- पाँच मिनट, दस मिनट। एकान्त को ‘रहसि’ भी कहते हैं। ‘रहसि’ उलट दो तो रह का हर हो जाता है। तो एकान्त शिवरूप है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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