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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">'''भाग-3 : अध्याय 6'''</div> | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">'''भाग-3 : अध्याय 6'''</div> | ||
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">'''प्रवचन : 4'''</div> | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">'''प्रवचन : 4'''</div> | ||
− | + | एक बात आपको डॉक्टरों कि मान की सुनावें। एक बड़े सेठ को दिल्ली में ऑपरेशन करावाना था। उन्होंने पता लगावाया कि कौन डॉक्टर उनका ऑपरेशन ठीक करेगा। एक डॉक्टर ने कहा कि मैं दो सौ रुपये लूँगा। दूसरे ने कहा कि मैं पाँच सौ लूँगा। | |
− | + | तीसरे ने कहा कि मैं एक हज़ार लूँगा चौथे ने कहा कि मैं पाँच हज़ार से कम नही लूँगा। उससे अधिक फीस किसी और डाक्टर ने नही माँगी। सेठ जी ने उसी बडी फीस वाले डॉक्टर से आपरेशन कराया। कहने का मतलब यह कि उसकी योग्यता का निर्णय कैसे हुआ? उसकी होशियारी, उसकी जानकारी से? नहीं उसके पैसों से उसकी उसकी योग्यता का निर्णय हुआ। | |
− | गर्मी-सर्दी प्रकृति से आती हैं सुख-दुःख अपने बने हुए स्वभाव से आते हैं और मानापमान अपनी मान्यता से प्राप्त होते हैं इनके चक्कर में न पड़कर अपने मन को काबू में रखिये, शान्त रहिये। परमात्मा आपके दिल में बैठा हुआ हैं- '''परमात्मा | + | जब हम मान करते हैं तो हमें मान में भी समान होना चाहिए और अपमान में भी समान होना चाहिए। एक सज्जन ने मुझसे कहा कि स्वामी जी, जब मेरे सामने कोई झूठ बोलता है तो मालूम पड़ता है कि वह मेरा अपमान कर रहा है। उसके झूठ बोलने पर मुझे क्यों बड़ा दुःख होता है। मैंने कहा कि भलेमानुष; तब तो तुम हमेशा दुःखी रहोगे। उन्होंने कहा कि ऐसा क्यों कहते हैं आप? मैंने उत्तर दिया- इसलिए कहता हूँ कि दुनिया में बहुत लोग झूठ बोलते हैं। तुम्हारे सामने सैकड़ों आ-आकर झूठ बोलेंगे और तुम दुःखी होने वाले अकेले रहोगे। मेरे भाई, वे झूठ बोलते हैं तो बोलने दो। तुम तो मानो कि ‘तेरे भावे जो करे, भलो बुरो संसार।’ तुम क्या सबकी जीभ पकड़ोगे, सबको चाँटा लगाओगे? सबके लिए जलोगे? तुम्हारे घर में भी तो दस तरह के लोग रहते हैं। सब तुम्हारे मन के थोड़े ही है। तो, अशान्ति के कारणों के उपस्थित होने पर भी, मानापमान प्राप्त होने पर भी आप अपने मन को अशान्त मत कीजिए, उसको जहाँ-का-तहाँ रहने दीजिए। और गर्मी-सर्दी जो भी आवे उसे सह लीजिए। |
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+ | गर्मी-सर्दी प्रकृति से आती हैं सुख-दुःख अपने बने हुए स्वभाव से आते हैं और मानापमान अपनी मान्यता से प्राप्त होते हैं इनके चक्कर में न पड़कर अपने मन को काबू में रखिये, शान्त रहिये। परमात्मा आपके दिल में बैठा हुआ हैं- '''परमात्मा समाहितः।''' देखो कितनी सीधी बात है। इसमें ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने की बात नहीं है। समाधि लगाने की बात नहीं है। गोलोक ब्रह्मलोक में जाने की बात नहीं हैं [[यज्ञ|यज्ञ-याग]] करने की बात नहीं है। इसके लिए न धर्मात्माओं की तरह यज्ञ करना है, न [[भक्त|भक्तों]] की तरह परलोक, बैकुण्ठ या गोलोक में जाना है, न योगियों की तरह समाधि लगानी है और न ब्रह्मज्ञानियों की तरह घटाकाश, मठाकाश का विचार करना है। करना केवल इतना ही है कि सर्दी-गर्मी, सुख-दुःख और मान-अपमान के उत्पादक तत्त्वों अर्थात प्रकृति, स्वभाव एवं मान्यता को समझकर अपने मन की शान्ति बनाये रखना है। एक सज्जन ने पत्र लिखकर मुझे अपने यहाँ बुलाया है। उसको आज ही यह उत्तर देने का विचार है कि जब शरीर स्वस्थ लगता है तब तो मन होता है कि तुम्हारे यहाँ आजायें, किन्तु जिस दिन शरीर बिगड़ता है, उस दिन मन होता है कि न जायें। ऐसी स्थिति में कौन-सा निश्चिय तुम को लिख भेजूँ? | ||
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16:12, 3 फ़रवरी 2018 के समय का अवतरण
गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-3 : अध्याय 6
प्रवचन : 4
एक बात आपको डॉक्टरों कि मान की सुनावें। एक बड़े सेठ को दिल्ली में ऑपरेशन करावाना था। उन्होंने पता लगावाया कि कौन डॉक्टर उनका ऑपरेशन ठीक करेगा। एक डॉक्टर ने कहा कि मैं दो सौ रुपये लूँगा। दूसरे ने कहा कि मैं पाँच सौ लूँगा। तीसरे ने कहा कि मैं एक हज़ार लूँगा चौथे ने कहा कि मैं पाँच हज़ार से कम नही लूँगा। उससे अधिक फीस किसी और डाक्टर ने नही माँगी। सेठ जी ने उसी बडी फीस वाले डॉक्टर से आपरेशन कराया। कहने का मतलब यह कि उसकी योग्यता का निर्णय कैसे हुआ? उसकी होशियारी, उसकी जानकारी से? नहीं उसके पैसों से उसकी उसकी योग्यता का निर्णय हुआ। जब हम मान करते हैं तो हमें मान में भी समान होना चाहिए और अपमान में भी समान होना चाहिए। एक सज्जन ने मुझसे कहा कि स्वामी जी, जब मेरे सामने कोई झूठ बोलता है तो मालूम पड़ता है कि वह मेरा अपमान कर रहा है। उसके झूठ बोलने पर मुझे क्यों बड़ा दुःख होता है। मैंने कहा कि भलेमानुष; तब तो तुम हमेशा दुःखी रहोगे। उन्होंने कहा कि ऐसा क्यों कहते हैं आप? मैंने उत्तर दिया- इसलिए कहता हूँ कि दुनिया में बहुत लोग झूठ बोलते हैं। तुम्हारे सामने सैकड़ों आ-आकर झूठ बोलेंगे और तुम दुःखी होने वाले अकेले रहोगे। मेरे भाई, वे झूठ बोलते हैं तो बोलने दो। तुम तो मानो कि ‘तेरे भावे जो करे, भलो बुरो संसार।’ तुम क्या सबकी जीभ पकड़ोगे, सबको चाँटा लगाओगे? सबके लिए जलोगे? तुम्हारे घर में भी तो दस तरह के लोग रहते हैं। सब तुम्हारे मन के थोड़े ही है। तो, अशान्ति के कारणों के उपस्थित होने पर भी, मानापमान प्राप्त होने पर भी आप अपने मन को अशान्त मत कीजिए, उसको जहाँ-का-तहाँ रहने दीजिए। और गर्मी-सर्दी जो भी आवे उसे सह लीजिए। गर्मी-सर्दी प्रकृति से आती हैं सुख-दुःख अपने बने हुए स्वभाव से आते हैं और मानापमान अपनी मान्यता से प्राप्त होते हैं इनके चक्कर में न पड़कर अपने मन को काबू में रखिये, शान्त रहिये। परमात्मा आपके दिल में बैठा हुआ हैं- परमात्मा समाहितः। देखो कितनी सीधी बात है। इसमें ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने की बात नहीं है। समाधि लगाने की बात नहीं है। गोलोक ब्रह्मलोक में जाने की बात नहीं हैं यज्ञ-याग करने की बात नहीं है। इसके लिए न धर्मात्माओं की तरह यज्ञ करना है, न भक्तों की तरह परलोक, बैकुण्ठ या गोलोक में जाना है, न योगियों की तरह समाधि लगानी है और न ब्रह्मज्ञानियों की तरह घटाकाश, मठाकाश का विचार करना है। करना केवल इतना ही है कि सर्दी-गर्मी, सुख-दुःख और मान-अपमान के उत्पादक तत्त्वों अर्थात प्रकृति, स्वभाव एवं मान्यता को समझकर अपने मन की शान्ति बनाये रखना है। एक सज्जन ने पत्र लिखकर मुझे अपने यहाँ बुलाया है। उसको आज ही यह उत्तर देने का विचार है कि जब शरीर स्वस्थ लगता है तब तो मन होता है कि तुम्हारे यहाँ आजायें, किन्तु जिस दिन शरीर बिगड़ता है, उस दिन मन होता है कि न जायें। ऐसी स्थिति में कौन-सा निश्चिय तुम को लिख भेजूँ? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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