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अत्यन्त उत्कट पाप अथवा अत्यन्त उत्कट पुण्य, इसी जीवन में फलदानोन्दमुख हो जाता है, फल का निर्माण कर देता है। इसलिए प्रारब्ध हमारे प्रतिकृल है- ऐसा सोचकर, हाथ पर-हाथ रखकर बैठ नहीं जाना चाहिए। जिस प्रकार [[गीता]] में [[श्रीकृष्ण]] [[अर्जुन]] से कह रहे हैं कि '''उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवासादयेत्;''' उसी प्रकार योगवासिष्ठ के मुमुक्ष व्यवहार-प्रकरण में वसिष्ठ जी ने [[रामचन्द्र|श्री रामचन्द्र भगवान]] से कहा है। मनुष्य को अपना प्रयत्न ईश्वरेच्छा पर नहीं छोड़ना चाहिए, क्योंकि [[ईश्वर]] ने अपना अन्तःकरण अलग नहीं रखा। जीव के अन्तःकरण की तरह [[ईश्वर]] का अन्तःकरण नहीं होता। इसलिए ईश्वर स्वयं कोई संकल्प नहीं करता। वह तो अपने [[भक्त]] के संकल्प के साथ ही अपना संकल्प मिला देता है। इसलिए यदि पूरे हृदय से कोई काम करने के लिए तत्पर होते हैं। तो ईश्वर की शक्ति, सहायता आपको प्राप्त होती है। कालवादी लोग ग्रह और कर्म को मानते हैं। गणितशास्त्र कालवाद है और फलितशास्त्र प्रारब्धवाद है। दोनों के सिद्धान्त अलग-अलग हैं। भागवत में तो इस प्रसंग को लेकर एक अध्याय ही है। ग्यारहवें स्कन्ध के तेइसवें अध्याय में बताया है कि ग्रह और काल किसी को दुःख नहीं देते। '''मनः परं कारणमामनन्ति''' -केवल अपना मन ही अपने को दुःख देता है। | अत्यन्त उत्कट पाप अथवा अत्यन्त उत्कट पुण्य, इसी जीवन में फलदानोन्दमुख हो जाता है, फल का निर्माण कर देता है। इसलिए प्रारब्ध हमारे प्रतिकृल है- ऐसा सोचकर, हाथ पर-हाथ रखकर बैठ नहीं जाना चाहिए। जिस प्रकार [[गीता]] में [[श्रीकृष्ण]] [[अर्जुन]] से कह रहे हैं कि '''उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवासादयेत्;''' उसी प्रकार योगवासिष्ठ के मुमुक्ष व्यवहार-प्रकरण में वसिष्ठ जी ने [[रामचन्द्र|श्री रामचन्द्र भगवान]] से कहा है। मनुष्य को अपना प्रयत्न ईश्वरेच्छा पर नहीं छोड़ना चाहिए, क्योंकि [[ईश्वर]] ने अपना अन्तःकरण अलग नहीं रखा। जीव के अन्तःकरण की तरह [[ईश्वर]] का अन्तःकरण नहीं होता। इसलिए ईश्वर स्वयं कोई संकल्प नहीं करता। वह तो अपने [[भक्त]] के संकल्प के साथ ही अपना संकल्प मिला देता है। इसलिए यदि पूरे हृदय से कोई काम करने के लिए तत्पर होते हैं। तो ईश्वर की शक्ति, सहायता आपको प्राप्त होती है। कालवादी लोग ग्रह और कर्म को मानते हैं। गणितशास्त्र कालवाद है और फलितशास्त्र प्रारब्धवाद है। दोनों के सिद्धान्त अलग-अलग हैं। भागवत में तो इस प्रसंग को लेकर एक अध्याय ही है। ग्यारहवें स्कन्ध के तेइसवें अध्याय में बताया है कि ग्रह और काल किसी को दुःख नहीं देते। '''मनः परं कारणमामनन्ति''' -केवल अपना मन ही अपने को दुःख देता है। | ||
− | तो मनुष्य को सावधान हो जाना चाहिए। हमारा पड़ोसी हमारा उद्धार करेगा, देवदूत हमारा उद्धार करने के लिए आयेगा अथवा भाग्य से हमारा उद्धार होगा- यह धारणा ठीक नहीं। आप स्वयं अपने उद्धार के लिए प्रयत्नशील हो जाइये। | + | तो मनुष्य को सावधान हो जाना चाहिए। हमारा पड़ोसी हमारा उद्धार करेगा, देवदूत हमारा उद्धार करने के लिए आयेगा अथवा भाग्य से हमारा उद्धार होगा- यह धारणा ठीक नहीं। आप स्वयं अपने उद्धार के लिए प्रयत्नशील हो जाइये। |
| style="vertical-align:bottom;"| [[चित्र:Next.png|right|link=गीता दर्शन -अखण्डानन्द सरस्वती पृ. 370]] | | style="vertical-align:bottom;"| [[चित्र:Next.png|right|link=गीता दर्शन -अखण्डानन्द सरस्वती पृ. 370]] | ||
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15:26, 3 फ़रवरी 2018 के समय का अवतरण
गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-3 : अध्याय 6
प्रवचन : 4
जैसा कि कल संक्षेप में बताया गया, भगवद्गीता पौरुष-प्रधान शास्त्र है। प्रारब्ध के अनुसार जैसा हो रहा है, वैसा होने दो- यह बात गीता को मान्य नहीं। प्रारब्ध बनाने वाले तो हम ही हैं। हमने पहले जो कर्म किया, उससे प्रारब्ध, अब नया कर्म करेंगे तो नया प्रारब्ध बनेगा। कर्म में तीव्रता हो जो वह तत्काल प्रारब्ध बन जाता है। प्रारब्ध दूसरे जन्म में बनता हो, ऐसा नहीं-
अत्यन्त उत्कट पाप अथवा अत्यन्त उत्कट पुण्य, इसी जीवन में फलदानोन्दमुख हो जाता है, फल का निर्माण कर देता है। इसलिए प्रारब्ध हमारे प्रतिकृल है- ऐसा सोचकर, हाथ पर-हाथ रखकर बैठ नहीं जाना चाहिए। जिस प्रकार गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं कि उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवासादयेत्; उसी प्रकार योगवासिष्ठ के मुमुक्ष व्यवहार-प्रकरण में वसिष्ठ जी ने श्री रामचन्द्र भगवान से कहा है। मनुष्य को अपना प्रयत्न ईश्वरेच्छा पर नहीं छोड़ना चाहिए, क्योंकि ईश्वर ने अपना अन्तःकरण अलग नहीं रखा। जीव के अन्तःकरण की तरह ईश्वर का अन्तःकरण नहीं होता। इसलिए ईश्वर स्वयं कोई संकल्प नहीं करता। वह तो अपने भक्त के संकल्प के साथ ही अपना संकल्प मिला देता है। इसलिए यदि पूरे हृदय से कोई काम करने के लिए तत्पर होते हैं। तो ईश्वर की शक्ति, सहायता आपको प्राप्त होती है। कालवादी लोग ग्रह और कर्म को मानते हैं। गणितशास्त्र कालवाद है और फलितशास्त्र प्रारब्धवाद है। दोनों के सिद्धान्त अलग-अलग हैं। भागवत में तो इस प्रसंग को लेकर एक अध्याय ही है। ग्यारहवें स्कन्ध के तेइसवें अध्याय में बताया है कि ग्रह और काल किसी को दुःख नहीं देते। मनः परं कारणमामनन्ति -केवल अपना मन ही अपने को दुःख देता है। तो मनुष्य को सावधान हो जाना चाहिए। हमारा पड़ोसी हमारा उद्धार करेगा, देवदूत हमारा उद्धार करने के लिए आयेगा अथवा भाग्य से हमारा उद्धार होगा- यह धारणा ठीक नहीं। आप स्वयं अपने उद्धार के लिए प्रयत्नशील हो जाइये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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