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01:07, 1 जनवरी 2018 का अवतरण
गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-3 : अध्याय 6
प्रवचन : 3
ऐसी बुद्धि, जिसमें बात के लिए प्रेरणा न हो, जीवन में उपयोगी नहीं और ऐसा कर्म, जो बुद्धि के विरुद्ध हो- स्वय कर्ता की ही बुद्धि जिसको स्वीकार न करे, वह मनुष्य को पशु बना देता है। जीवन में दुःख क्यो हैं? इसलिए कि हमारी बुद्धि कुछ अलग बताती है और हम काम कुछ अलग करते हैं। जब बुद्धि और कर्म में मेल नहीं होता, तब जीवन में तीन बातें आती हैं। एक तो बुद्धि अपना तिरस्कार नहीं कर पाती। बुद्धि के विरुद्ध कर्म करने पर अपना अपमान नहीं सह सकती और मूर्च्छित हो जाती है। सस्कृत में मूर्ख शब्द की व्युपत्ति ही मुर्च्छा है। ‘मूर्च्छित इति मूर्खः’- जो मूर्च्छित हो गया, उसका नाम ही मूर्ख है। दूसरी बात आती है, बुद्धि और कर्म के अलगाव से भय की। आदमी अक्लमन्दी से काम नहीं करता तो वह डरने लगता है। उसके मन में बेचैनी आ जाती है। तनाव आ जाता है। बुद्धि और कर्म में विरोध होने पर तीसरी बात बाती है दुःख की। इसलिए बुद्धि और कर्मका समन्वय होना चाहिए। समन्वय शब्द वेदान्तियों का है। इसलिए यहाँ समन्वय के स्थान पर ‘समुच्चय’ शब्द का प्रयोग किया जाये तो उपयुक्त है। लौकिक ज्ञान, आत्मिक ज्ञान और व्यवहार ज्ञान के लिए कर्म तथा बुद्धि का समुच्च अनिवार्य है यदि आप ज्ञान और कर्म को ठीक-ठीक मिलाकर जीवन का संचालन कर रहे हैं। तो सफलता निश्चित है। प्रसंगवश एक बात की ओर आपका ध्यान आकृष्ट करता हूँ, वैसे आप भी जानते हैं। नशा शरीर के लिए जहर होता है कि नहीं, यह तो डाक्टर लोग बता सकते हैं; परन्तु बुद्धि के लिए जरूर जहर होता है। वह बुद्धि के लिए विष है और उसके प्रभाव से बुद्धि का नियन्त्रण छूट जाता है। और कल ही आपको सुनाया था कि साधु के वेश में रहने वाले एक सज्जन विदेश में नशा पीकर अनाप-शनाप बोलने लगे, उद्दण्डता करने लगे। इसका अर्थ है कि नशा पीने से बुद्धि अपने काबू में नहीं रहती और मनुष्य अकर्मण्य हो जाता है जब बुद्धि ही काबू में नहीं रहेगी तो ठीक-ठीक कर्म कैसे करेगा? इसलिए व्यावहारिक बात बतायी। न शं यया सा नशा- जिससे शान्ति कभी नहीं मिल सकती, उसका नाम नशा है। अब आगे यह बात बताते हैं कि संन्यास और योग का समन्वय कैसे होता है? संन्यासी त्यागी होता है ओर योगी कर्म का अनुष्ठाता, दोनों में क्या मेल है? त्याग एक तो बाहर का होता है, एक भीतर का। यदि बाहर का त्याग नहीं है, परन्तु भीतर त्याग की तैयारी बनी हुई है तो त्याग आपके अन्तर में निवास करता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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