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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">'''भाग-3 : अध्याय 6'''</div> | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">'''भाग-3 : अध्याय 6'''</div> |
01:52, 12 जून 2016 का अवतरण
गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-3 : अध्याय 6
प्रवचन : 4
‘ह’ धातु और ‘धृ’ धातु दोनों का क्रिया पद होता है+‘हरेत्’ और धरेत्’ तथा ‘उत’ उपसर्ग लगने पर ‘उद्धरेत्’ बनता है। यदि तुम अपना भला स्वयं नहीं करते तो तुमको दूसरे के ऊपर भरोसा करने का कोई हक नहीं। वैसे भरोसा करना, विश्वास करना भी अपना पौरुष ही है। विश्वास करो कि ईश्वर तुम्हारा भला करेगा। यह विश्वास जीवन ही कर सकता है। विश्वास करना जीव-धर्म है। जीव अपने धर्म का पालन करेगा, विश्वास करेगा तो ईश्वर की कृपा उसके ऊपर उतरेगी। अब गीता कहती है कि नात्मनमवसादयेत् अपने को अवसन्न नहीं करना चाहिए। प्रसन्न शब्द का प्रयोग तो आप लोग करते ही हैं। जैसे प्रसन्न हैं, विषण है वैसे ही अवसन्न है। नात्मानमवसादयेत् का अर्थ है अपने को गिराओ मत, अपने को बिखेरो मत- अपने को विकीर्ण मत करो। जब हम अपने को हड्डी-मांस चाम के कूड़े में कैद कर देते हैं तब अपने आपको गिरा देते हैं। तुलसी दास जी ने कहा है कि- चेतन अमल सुखरासी। आप चेतन हो, निर्मल हो, सहज सुखराशि हो, किन्तु अपने को कहाँ गिरा दिया है? चेतन होते हुए भी जड़ में गिरा दिया है। निर्मल होते हुए भी मलिनता के गड्ढे में गिरा दिया है। सहजसुखराशि होते हुए भी दुःखो के नीचे दबा दिया है। इसीलिए भगवान् कहते हैं कि उठो। श्रुति बोलती है-
सावधान! उठो। जागो। बड़ों के पास जाकर जानो। अपने आपको सन्नद्ध कर लो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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