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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">'''भाग-3 : अध्याय 6'''</div> | <div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">'''भाग-3 : अध्याय 6'''</div> |
01:37, 12 जून 2016 का अवतरण
गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-3 : अध्याय 6
प्रवचन : 2
यह पहली भूमिका है कि तुम्हारे कर्म में कर्तव्य का समावेश हो। दूसरी बात यह है कि आप कर्म करके बन्धन में न पड़े। कर्म में पाँच दोष हैं। और उनके निवारण के लिए गीता में चार विद्याओं का उपदेश है। विद्या अविद्या को निवृत्त करेगी ही। विद्यामात्र ही अविद्या की निवृत्ति में उपयोगी है। आपके कर्म में नासमझी एक दोष है। आप बिना समझे-बूझे कर्म में लग जाते हैं। ऐसे बिल में हाथ डाल देते जहाँ से खींच न सकें। हम लोग बचपन में गाँव में खेल खेला करते थे। एक यह था कि छोटे मुँह वाले मिट्टी के बर्तन में कुछ खाना रखकर, थोड़ी दूर बैठ जाते। कुत्त आता देखता कि खाने की चीज रखी है तो उसमें अपना मुँह डाल देता और सिर फस जाता। वह भोजन तो कर लेता लेकिन जब उस बर्तन से सिर निकालने लगता तो निकलता ही नहीं। तो ऐसे कर्म में अपने को नहीं फँसाना जहाँ से निकल नहीं सकते। ऐसा करना तो कुए में गिरना है, नासमझी है। ठीक वैसे ही जैसे मदारी छोटे मुँह के बर्तनों में चने रखकर मिट्टी में गाड़ देता है। बन्दर आता है और उसमें हाथ डाल देता है। मुठ्ठि में चना भर लेता है। जब उसकी मुठ्ठि खाली थी तब तो बर्तन में चली गयी और जब उसमें चना भर लिया तो वह बर्तन में से निकलता नहीं। इतने में मदारी बन्दर को पकड़ लेता है और उसे मदारी के पराधीन होना पड़ता है। तो ऐसे कर्म में हाथ नहीं डालना, जिसके आप आश्रित हो जायें। कर्म आपके आश्रित रहे। आप जब चाहें, दोनों हाथ उठाकर खड़े हो जायँ और कर्म छोड़ दें। यह कैसे होगा? कर्म सम्बन्धी दोषों का निवारण होने पर। कर्म करने में एक तो नासमझी दोष है। इसको शास्त्र की भाषा में अविद्या बोलते हैं। दूसरा दोष है कर्म का अभिमान । हम यह करेंगे, वह करेंगे। यक्ष्ये दास्यामि मोदिष्य इन्यज्ञानविमोहिताः- हम अज्ञान से विमोहित होकर ही अभिमान करते हैं। तो, कर्म में जब अभिमान का मिश्रण होता है, अविद्या का मिश्रण होता है, तब फँसाव होता है, बन्धन लग जाता है, फन्दा लग जाता है, और जब अभिमान आता है तब कर्म व्यक्तिगत हो जाता है। वह ‘सर्वजनहिताय’ नहीं होता, ‘सर्वजनसुखाय’ नहीं होता, उसमें अपने लिए व्यक्तिगत सुख-स्वार्थ मिल जाता है। कर्म का तीसरा दोष है राग। किसी के राग में आकर कर्म में पक्षपात करना। जैसे आजकल अखबारों में शब्द चलता है भाई-भतीजावाद। अपने रिश्तेदारों, नातेदारों और सगे-सम्बन्धियों को जोड़कर उनके राम में फँस गये कि जो उचित कर्तव्य थ वह भूल गये, उनका घेरा बन गया, सीमा बन गयी। वे जो काम सम्पूर्ण देश के लिए करते, सम्पूर्ण जनता के लिए करते वह काम अपना विस्तार छोड़कर विशालता छोड़कर एक घेरे में आ गया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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