गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-3 : अध्याय 6
प्रवचन : 5
दूसरी बात है कि चलते-फिरते मत मिलिए, ‘स्थित:’ - बैठ कर मिलिए। देखो कितनी बातें बतायीं जिससे मिलना है। उसका नाम बता दिया- आत्मानम्। कितने समय मिलना है तो सततं- रोज-रोज बताया। कहाँ मिलना है तो कहा कि एकान्त में और कैसे मिलिए तो बताया कि खड़े-खड़े चलते-फिरते नहीं, बैठकर मिलिए। मिलने की इन प्रणालियों की चर्चा वेदान्तों में भी आती है वेदान्त-दर्शन का सूत्र है- आसीनः सम्भवात्। आपको परमात्मा से साक्षात्कार करना है, तो सोते-सोते मत कीजिए, कयोंकि उसमें लय हो जाने की सम्भावना है। आँख बन्द हो जायेगी तो मन लीन हो जायेगा। चलते-चलते इसलिए मत मिलिए कि उसमें ठोकर लग जाने की, विक्षेप उत्पन्न हो जाने की सम्भावना है। इसलिए बताया कि सोते हुए नहीं, चलते हुए नहीं, खड़े-खड़े भी नहीं, एकाकी बैठकर मिलिए। एकाकी का अर्थ है अकेले। नौकर -चाकर दस-पाँच खड़े हों और जब घंटी बजायी तब वे दौड़कर आ गये ।तो ये जो सेवक लोग हैं, वे मनुष्य को पराधीन बना देते हैं। यह जीवन की कला नहीं है। यदि साधन में भी आप स्वावलम्बी नहीं बनते हैं- एकाकी, असहाय नहीं होते तो आपको सफलता नहीं मिल सकती। आपको एक आदमी जोर से पंखा झूला रहा है और आप ध्यान करने बैठे हैं, तो आपका ध्यान नहीं लग सकता। इसी प्रकार ध्यान करने से हमको अमुक चीज मिलेगी- इस प्रकार का चिन्तन भी ध्यान बाधक है। तीसरी बात यह है कि आस पास कुछ किशमिश रख लिया, शक्कर रख ली, चूर्ण रख लिया, दवाएँ रख लीं, पीने की चीजें रख लीं, खाने की सामग्री रख ली, तो आपको लाभ नहीं मिलेगा। आनन्द ध्यान के लिए आपको एकाकी, निराशी और अपरिग्रही होना अनिवार्य है। उसके लिए न सहायक चाहिए, न सामग्री चाहिए और न वह करने से आपको अमुक लाभ होगा- यह विचार चाहिए। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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