गीता दर्शन -स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती महाराज
भाग-3 : अध्याय 6
प्रवचन : 2
इसी तरह चोरी-बेईमानी कब रुकेगी ? चोरी-बेइमानी क्रिया है। यह भी पुलिस से, क़ानून से नहीं रुकेगी ? तभी रुकेगी जब लोगों के मन मे लोभ कम होगा। ऐसी ही बात अनाचार-व्यभिचार क्रिया में है। उसे फ़ौज नहीं रोक सकती। फ़ौज भी अनाचारी-व्यभिचारी हो जाती है। पुलिस भी हो जाती है। सरकार भी हो जाती है डाकू लोग भी अपना झुण्ड बना लेते हैं। व्यभिचारी लोग भी अपना चकला चलाते हैं। एक जुट बना लेते हैं। लोभी लोगों का भी गुट होता है। लोभियों का गुट, कामियों का गुट, क्रोधियों का गुट बना जाता है। हमारे आर्युवेद के अनुसार जो चिकित्सा होती है उसमें एक होती है- व्याधिप्रत्यनीक चिकित्सा और दूसरी होती है- हेतु प्रत्यनीक चिकित्सा। जैसे किसी को जल्दी सर्दी हो जाती है। उसे एक दवा खिला दी, इन्जेक्शन दे दिया, सेंक कर दिया और सर्दी मिट गयी तो यह व्याधिप्रत्यनीक चिकित्सा हुई। हेतु प्रत्यनीक चिकित्सा वह होती है, जो हमेशा के लिए दोष को मिटाने का प्रयास करे। अपना अध्यात्मशास्त्र भी चिकित्साशास्त्र है। इसके भी चिकित्सा के समान ही चार भेद होते हैं। यदि आप हिंसा मिटाना चाहते है तो क्रोध कम कीजिये। क्रोध कम करना चाहते हैं तो किसी व्यक्ति से, जाति से; सम्प्रदाय अथवा राष्ट्र से द्वेष मत कीजिये। क्रोध कम करना चाहते हैं तो किसी व्यक्ति से, जाति से, सम्प्रदाय अथवा राष्ट्र से द्वेष मत कीजिए। नहीं तो वह कर्म जिसके अन्दर दीखेगा। उसी से आपका द्वेष हो जायेगा। गीता में है- न द्वेष्टकुशलं कर्म कुशले नानुषज्जते। तात्पर्य यह कि किसी भोग से द्वेष मत कीजिए। किसी वस्तु से द्वेष मत कीजिए। किसी चीज को देखकर आपके हृदय में आग न जले। हमारे कर्म में जो चोरी-बेइमानी होती है। वह क्यों होती है? लोभ की अधिकता से होती है। काम की पूर्ति और दूसरी अपूर्ति। कामना की पूर्ति पर लोभ होता है और अपूर्ति होने पर क्षोभ होता है- कामात् क्रोधोऽभिजायते। काम के दो बेटे हैं- लोभ और क्रोध। पूरा हुआ तो लोभ और पूरा न हुआ तो क्रोध। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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