भीमसेन और द्रौपदी का संवाद

महाभारत विराट पर्व के कीचकवध पर्व के अंतर्गत अध्याय 21 में भीमसेन और द्रौपदी के संवाद का वर्णन हुआ है[1]-

भीमसेन का संवाद

भीमसेन बोले - देवि! मेरे बाहुबल को तथा अर्जुन के गाण्डीव धनुष को भी धिक्कार है; क्योंकि तुम्हारे ये दोनों कोमल हाथ, जो पहले लाल थे, अब गड्डे पड़ने से काले हो गये हैं। मैं तो उसी दिन विराट की सभा में ही भारी संहार मचा देता, किंतु ऐसा न करने में कारण बने कुन्तीनन्दन महाराज युधिष्ठिर। वे प्रकट हो जाने का भय सूचित करते हुए मेरी ओर देखने लगे अथवा ऐश्वर्य के मद से उन्मत्त हुए उस कीचक मस्तक मैं उसी प्रकार पैरों से रौंद डालता जैसे क्रीड़ा करता हुआ महान गजराज कीचक (बाँस) के वृक्ष को मसल डालता है। कृष्णे! जब कीचक ने तुम्हें लात से मारा था, उस समय मैं वहीं था और अपनी आँखों यह घटना मैंने देखी थी। उसी क्षण मेरी इच्छा हुई कि आज इन मत्स्यदेशवासियों का महासंहार कर डालूँ। किंतु धर्मराज ने वहाँ नेत्रों से संकेत करके मुझे ऐसा करने से रोक दिया। भामिनी! उनके उस इशारे को समझकर ही मै चुप रह गया। जिस दिन हमें राज्य से वंचित किया गया, उसी दिन जो कौरवों वध नहीं हुआ, दुर्योधन, कर्ण, सुबलपुत्र शकुनि तथा पापी दुःशासन के मस्तक मैंने नहीं काट डाले, यह सब सोचकर मेरे हृदय में काँटा सा चुभ जाता है और शरीर में आग लग जाती है। सुश्रोणि! तुम बड़ी बुद्धिमती हो, धर्म को न छोड़ो; क्रोध त्याग दो। कल्याणी! यदि राजा युधिष्ठिर तुम्हारे मुख से यह सारा उपालम्भ सुनेंगे, तो प्राण त्याग देंगे। सुश्रोणि! तनुमध्यमे! धनंजय अथवा नकुल-सहदेव भी इसे सुनकर जीवित नहीं रह सकते। इन सबके परलोकवासी हो जाने पर मैं भी नहीं जी सकूँगा।

भृगुनन्दन महर्षि की कथा

प्राचीन काल की बात है, भृगुनन्दन महर्षि च्यवन तपस्या करते-करते बाँबी के समान हो गये थे, मानो अब उनका जीवन-दीप बुझ जायगा; ऐसी दशा हो गयी थी, तो भी उनकी कल्याणमयी पत्नी सुकन्या ने उन्हीं का अनुसरण किया- वह उन्हीं की सेवासुश्रुसा में लगी रही। नारायणी इन्द्रसेना भी अपने रूप-सौन्दर्य के कारण विख्यात थी। तुमने भी उसका नाम सुना होगा। पूर्वकाल में उसने अपने हजार वर्ष के बूढ़े पति मुद्गल ऋषि की निरन्तर सेवा की थी। जनकनन्दिनी सीता का नाम तो तुम्हारे कानों में पड़ा ही होगा। उन्होंने अत्यन्त घोर वन में निवास करते वाले अपने पति श्रीरामचन्द्र जी का अनुगमन किया था। सुश्रोणि! जानकी श्रीराम की प्यारी रानी थी। वे राक्षस की कैद में पड़कर दीघकाल तक क्लेश उठाती रहीं, तो भी उन्होंने श्रीराम को ही अपनाये रक्खा; अपना धर्म नहीं छोड़ा। भीरु! नयी अवस्था और अनुपम रूप-सौन्दर्य से सम्पन्न राजकुमारी लोपमुद्रा ने सम्पूर्ण अलौकिक सुख-भोगों पर लात मारकर अपने पति महर्षि अगस्त्य का ही अनुसरण किया था। सती-साध्वी नस्विनी सावित्री द्युमत्सेन के पुत्र वीरवर सत्यवान् के मर जाने पर उनके पीछे-पीछे अकेली ही यमलोक की ओर गयी थी।

भीमसेन द्वारा द्रौपदी को समझाना

कल्याणि! इन रूपवती पतिव्रता नारियों का जैसा आदर्श बताया गया है, उसी प्रकार तुम भी समस्त सद्गुणों से सम्पन्न हो। अब तुम थोड़े दिनों तक और ठहर जाओ। वर्ष पूरा होने में महीना- आध-महीना रह गया है। तेरहवाँ वर्ष पूर्ण होते ही तुम राजरानी बनोगी। देवि! मैं सत्य की शपथ खाकर कहता हूँ, ऐसा ही होगा; यह टल नहीं सकता। तुम्हें सभी श्रेष्ठ स्त्रियों के समक्ष अपना आदर्श उपस्थित करना चाहिये। भामिनी! तुम अपनी पतिभक्ति तथा सदाचार से सम्पूर्ण नरेशों के मस्तक पर स्थान प्राप्त करोगी और तुम्हें दुर्लभ भोग सुलभ होंगे।

द्रौपदी का संवाद

द्रौपदी ने कहा- प्राणनाथ भीम! इधर अनेक प्रकार के दुःखों को सहन करने में असमर्थ एवं आर्त होकर ही मैंने ये आँसू बहाये हैं। मैं राजा युधिष्ठिर को उलाहना नहीं दूँगी। महाबली भीमसेन! अब बीती बातों को दुहराने से क्या लाभ? इस समय जिसका अवसर उपस्थित है, उस कार्य के लिये तैयार हो जाओ। भीम! केकयराजकुमारी सुदेष्णा यहाँ मेरे रूप से पराजित होने के कारण सदा इस शंका से उद्विग्न रहती हैं कि राजा विराट किसी प्रकार इस पर आसक्त न हो जायँ। जिसका देखना भी अनृत (पापमय) है, वही यह परम दुष्टात्मा कीचक रानी सुदेष्णा के उक्त मनोभाव को जानकर सदा स्वयं आकर मेरे आगे प्रार्थना किया करता है। भीम! पहले-पहले उसके ऐसा कहने पर में कुपित हो उठी; किंतु पुनः क्रोध के वेग को रोककर बोली- ‘कीचक! तू काम से मोहित हो रहा है। अरे! तू अपने आपकी रक्षा कर। ‘मैं पाँच गन्धर्वों की पत्नी तथा प्यारी रानी हूँ। वे साहसी तथा शूरवीर गन्धर्व तुम्हें कुपित होकर मार डालेंगे’। मेरे ऐसा कहने पर महा दुष्टात्मा कीचक ने उत्तर दिया- ‘पवित्र मुस्कान वाली सैरन्ध्री! मैं गन्धर्वों से नहीं डरता। ‘भीरु! यदि मेरे सामने एक करोड़ गन्धर्व भी आ जायँ, तो मैं उन्हें मार डालूँगा; परंतु तुम मुझे स्वीकार कर लो’। उसके इस प्रकार उत्तर देने पर मैंने पुनः उस कामातुर और मतवाले कीचक से कहा- ‘कीचक! तू मेरे यशस्वी पति गन्धर्वों के समान बलवान नहीं है। ‘मैं सदा पातिव्रत्य-धर्म में स्थिर रहती हूँ एवं अपने उत्तम कुल की मर्यादा और सदाचार से सम्पन्न हूँ। मैं नहीं चाहती कि मेरे कारण किसी का वध हो, इसीलिये तू अब तक जीवित है’। मेरी यह बात सुनकर वह दुष्टात्मा ठहाका मारकर हँसने लगा। तदनन्तर केकयराजकुमारी सुदेष्णा, जैसा कीचक ने पहले उसे सिखा रक्खा था, उसी योजना के अनुसार अपने भाई का प्रिय करने की इच्छा से मुझे प्रेमपूर्वक कीचक के यहाँ भेजने लगी और बोली- ‘कल्याणि! तुम कीचक के महल से मेरे लिये मदिरा ले आओ’। मैं वहाँ गयी। सूतपुत्र ने मुझे देखकर पहले तो अपनी बात मान लेने के लिये बड़े-बड़े आश्वासनों के साथ समझाना आरम्भ किया; किंतु जब मैंने उसकी प्रार्थना ठुकरा दी, तब उसने क्रोधपूर्वक मेरे साथ बलात्कार करने का विचार किया। दुरात्मा कीचक के उस संकल्प को मैं जान गयी और राजा की शरण में पहुँचने के लिये बड़े वेग से भागी। किंतु वहाँ भी दुष्टात्मा सूतपुत्र ने राजा के सामने मुझे पकड़ लिया और पृथ्वी पर गिराकर लात से मारा।[2]

राजा विराट देखते रह गये। कंक तथा अन्य लोगों ने भी यह सब देखा। रथी, पीठमर्द (राजा के प्रिय व्यक्ति), महावत, वैदिक विद्वान तथा नागरिक- सबकी दृष्टि में यह बात आयी थी। मैंने राजा विराट और कंक को बार-बार फटकारा, तो भी राजा ने न तो उसे मना किया और न उसकी उद्दण्डता का दमन ही किया। राजा विराट का यह जो कीचक नाम वाला सारथि है, इसने धर्म को त्याग दिया है। यह अत्यन्त क्रूर है, तो भी विराट सुदेष्णा दोनों पति पत्नी उसे बहुत मानते हैं। यह उनका प्रिय सेनापति है। इसे अपनी शूरवीरता का बड़ा अभिमान है। यह पापात्मा सब बातों में मूर्ख है। महाभाग! यह परायी स्त्रियों पर बलात्कार करता और लोगों से बहुत धन हड़पता रहता है। लोग रोते-चिल्लाते रह जाते हैं; किंतु यह उनका सारा धन हड़प लेता है। यह सन्मार्ग में स्थिर नहीं रहता तथा धर्मोपार्जन भी नहीं करना चाहता है। यह पापात्मा है; इसके मन में पाप की ही वासना है। यह कामदेव के बाणों से विवश हो रहा है। उद्दण्ड और दुष्टात्मा तो है ही। मैंने बरर-बार इसकी प्रार्थना ठुकरायी है।। अतः यह जब-जब सामने आयेगा, मुझे मारेगा। सम्भव है, किसी दिन मुझे जीवन से भी हाथ धोना पड़े। उस दशा में धर्म के लिये प्रयत्न करने वाले तुम सब लोगों का सबसे महान धर्म नष्ट हो जायेगा। यदि तुम लोग प्रतिज्ञा के अनुसार तेरह वर्ष की अवधि का पालन करते रहागे, तो तुम्हारी यह भार्या जीवित न रहेगी। भार्या की रक्षा करने पर संतान की रक्षा होती है। संतान की रक्षा होने पर अपना आत्मा सुरक्षित होता है। आत्मा ही पत्नी के गर्भ से पुत्ररूप में जन्म लेती है। इसीलिये हद्वान पुरुष पत्नी को ‘जाया’ कहते हैं। मैंने वर्णधर्म का उपदेश देने वाले ब्राह्मणों के मुँह से सुना है, पत्नी को पति की रक्षा इसलिये करनी चाहिये कि वह किसी दिन मेरे पेट से जन्म लेगा। महाबली भीमसेन! क्षत्रिय के लिये सदा शत्रुओं का संहार करने के सिवा और कोई धर्म नहीं है। कीचक ने धर्मराज युधिष्ठिर के देखते-देखते और तुम्हारी आँखों के सामने मुझे लात मारी है। तुमने उस भयंकर राक्षस जटासुर से मेरी रक्षा की है। भाइयों सहित तुमने जयद्रथ को भी परास्त किया है। अतः अब इस महापापी कीचक को भी मार डालो, जो मेरा अपमान कर रहा है।[3]

भारत! राजा का प्रिय होने के कारण कीचक मेरे लिये शोक का कारण हो रहा है। अतः ऐसे कामोन्मत्त पापी को तुम उसी तरह विदीर्ण कर डालो, जैसे पत्थर पर पटककर घड़े को फोड़ दिया जाता है। भारत! जो मेरे लिये बहुत से अनर्थों का कारण बना हुआ है, उसके जीते-जी यदि कल सूर्योदय हो जायगा, तो मैं विष घोलकर पी लूँगी; किंतु कीचक के अधीन नहीं होऊँगी। भीमसेन! कीचक के वश में पड़ने की अपेक्षा तुम्हारे सामने प्राण त्याग देना मेरे लिये कल्याणकारी होगा।

वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन! ऐसा कहकर द्रौपदी भीम के वक्षःस्थल पर माथा टेककर फूट-फूटकर रोने लगी। भीमसेन ने उसको हृदय से लगाकर बहुत सान्त्वना दी। वह बहुत आर्त हो रही थी, अतः उन्होंने सुन्दर कटिभाग वाली द्रुपदकुमारी को युक्तियुक्त तात्त्विक वचनों से अनेक बार आश्वासन देकर अपने हाथ से उसके आँसू भरे मुँह को पोंछा और क्रोध से जबड़े चाटते हुए मन-ही-मन कीचक का स्मरण किया। तदनन्तर भीम ने दुःख से पीड़ित द्रौपदी ने इस प्रकार कहा।[4]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत विराट पर्व अध्याय 21 श्लोक 1-16
  2. महाभारत विराट पर्व अध्याय 21 श्लोक 17-32
  3. महाभारत विराट पर्व अध्याय 21 श्लोक 33-45
  4. महाभारत विराट पर्व अध्याय 21 श्लोक 46-51

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