- महाभारत विराट पर्व के पाण्डवप्रवेश पर्व के अंतर्गत अध्याय 7 में युधिष्ठिर का विराट के यहाँ निवास करने का वर्णन हुआ है[1]-
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युधिष्ठिर एवं विराट का संवाद
युधिष्ठिर ने कहा- महाराज विराट! मैं वैयाघ्रपद गोत्र में उत्पन्न हुआ ब्राह्मण हूँ। लोगों में ‘कंक’ नाम से मेरी प्रसिद्धि है। मैं पहले राजा युधिष्ठिर के साथ रहता था। वे मुझे अपना सखा मानते थे। मैं चौसर खेलने वालों के बीच पासे फेंकने की कला में कुशल हूँ।
विराट बोले- ब्रह्मन्! मैं आपको वर देता हूँ; आप जो चाहें, माँग लें। समूचे मत्स्यदेश पर शासन करें। मैं आपके वश में हूँ; क्योकि द्यूतक्रीड़ा में निपुण, चतुर, चालाक मनुष्य मुझे सदा प्रिय है। देवोपम ब्राह्मण! आप तो राज्य पाने के योग्य हैं।
युघिष्ठिर ने कहा- मत्स्यराज! नरनाथ। मुझे किसी हीन वर्ण के मनुष्य से विवाद न करना पड़े, यह मैं पहला वर माँगता हूँ तथा मुझसे पराजित होने वाला कोई भी मनुष्य हारे हुए धन को अपने पास न रखे (मुझे दे दे)। आपकी कृपा से यह दूसरा वर मुझे प्राप्त हो जाय, तो मैं रह सकता हूँ।
विराट बोले- ब्रह्मन! यदि कोई ब्राह्मणेतर मनुष्य आपका अप्रिय करेगा तो उसे मैं निश्चय ही प्राण दण्ड दूँगा। यदि ब्राह्मणों ने आपका अपराध किया तो उन्हें देश से निकाल दूँगा।[2] मेरे राज्य में निवास करने वाले और इस सभा में आये हुए लोगों! मेरी बात सुनो, जैसे मैं इस मत्स्य देश का स्वामी हूँ, वैसे ही से कंक भी हैं।
युधिष्ठिर का विराट के यहाँ निवास पाना
(फिर वे युधिष्ठिर से बोले-) कंक! आज से आप मेरे सखा हैं। जैसी सवारी में मैं चलता हूँ, वैसी ही आपको भी मिलेगी। पहनने के लिये वस्त्र और भोजन-पान आदि का प्रबन्ध भी आपके लिये पर्याप्त मात्रा में रहेगा। बाहर के राज्य-कोश, उद्यान और सेना आदि तथा भीतर के धन-दारा आदि की भी देख-भाल आप ही करें। मेरे आदेश से आपके लिये राजमहल का द्वार सदा खुला रहेगा। आपसे कोई परदा नहीं रक्खा जायेगा। जो लोग जीविका के अभाव में कष्ट पा रहे हों और अनुवाद के लिये अर्थात पहले के स्थायी तौर पर दिये हुए खेत और बगीचे आदि पुनः उपयोग में लाने के निमित्त नूतन राजाज्ञा प्रापत करने के लिये आपके पास आवें, उनके अनुरोध-पूर्ण वचन से आप सदा उनकी प्रार्थना मुझे सुना सकते हैं। विश्वास रखिये, आपके कथनानुसार उन याचकों को में सब कुछ दूँगा; इसमें संशय नहीं है। आपको मेरे पास आने या कुछ कहने में भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है।
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! इस प्रकार वहाँ राजा युधिष्ठिर तथा मत्स्यनरेश की प्रथम भेंट हुई। जैसे भगवान विष्णु का वज्रधारी इन्द्र से मिलन हुआ हो, उसी प्रकार विराटनरेश राजा युधिष्ठिर के साथ समागम हुआ। युधिष्ठिर के स्वरूप का दर्शन विराटराज को बहुत प्रिय लगा। जब वे आसन पर बैठ गये, तब राजा विराट उन्हें एकटक निहारने लगे। उनके दर्शन से वे तृप्त ही नहीं होते थे। जैसे इन्द्र अपनी कान्ति से स्वर्ग की शोभा बढ़ाते हैं, उसी प्रकार राजा युधिष्ठिर उस सभा को प्रकाशित कर रहे थे। धीर स्वभाव वाले नरश्रेष्ठ युधिष्ठिर उस समय राजा विराट के साथ इस प्रकार अच्छे ढंग से मिलकर और उनके द्वारा परम आदर-सत्कार पाकर वहाँ सुखपूर्वक रहने लगे। उनका वह चरित्र किसी को भी मालूम नहीं हुआ।[3]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ महाभारत विराट पर्व अध्याय 7 श्लोक 6-15
- ↑ युधिष्ठिर से ऐसा कहकर राजा विराट अन्य सभासदों से बोले
- ↑ महाभारत विराट पर्व अध्याय 7 श्लोक 16-18
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