- महाभारत विराट पर्व के गोहरण पर्व के अंतर्गत अध्याय 35 में गोपाध्यक्ष का उत्तरकुमार को युद्ध हेतु उत्साह दिलाने का वर्णन हुआ है[1]-
विषय सूची
गौप रक्षक द्वारा विराट को पशुओं के अपहरण की सूचना देना
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! वहाँ मत्स्यराज के मानी पुत्र भूमिन्जय (उत्तर) से मिलकर उस गोप ने उनसे राज्य के पशुओं के अपहरण का सब समाचार बताते हुए कहा- ‘राजकुमार! आप इस राष्ट्र की वृद्धि करने वाले हैं। आज कौरव आपकी साठ हजार गौओं को हाँक ले जा रहे हैं।
गोपाध्यक्ष का उत्तरकुमार को युद्ध हेतु उत्साह दिलाना
उनके हाथ से उस गोधन को जीत लाने के लिये उठ खड़े होइये। ‘राजपुत्र! आप इस राज्य के हिर्तषी हैं, अतः स्वयं ही युद्ध के लिये तैयार होकर निकलिये। मत्स्यनरेश ने अपनी अनुपस्थिति में आपको ही यहाँ का रक्षक नियुक्त किया है। ‘वे सभा में आपसे प्रभावित होकर आपकी प्रशंसा में बड़ी-बड़ी किया करते हैं। उनका कहना है- मेरा यह पुत्र उत्तर मेरे अनुरूप शूरवीर और इस वंश का भार वहन करने में समर्थ है। ‘मेरा यह लाड़ला बेटा बाण चलाने तथा अन्यान्य अस्त्रों के प्रयोग की कला में भी निपुण, सदा युद्ध के लिये उद्यत रहने वाला और वीर है।’ उन महाराज का यह कथन आज सत्य सिद्ध होना चाहिये। ‘पशुसम्पत्ति वाले राजाओं मे आप श्रेष्ठ हैं; अतः कौरवों को परास्त करके अपने पशुओं को लौटा लाइये और बाधों की भयंकर अग्नि से इन कौरवों की सारी सेनाओं को भस्म कर डालिये। ‘जैसे हाथियों के झुंड का स्वामी गजराज अपने विरोधियों को रौंद डालता है, उसी प्रकार आप अपने धनुष से छूटे हुए सुवर्णमय पंख से सुशोभित ओर झुकी हुई गाँठ वाले तीखे बाणों द्वारा विपक्षियों की विपुल वाहिनी को छिन्न-भिन्न कर डालिये। ‘आज शत्रुओं के बीच में जोर-जोर से गूँजने वाली धनुषरूपी वीणा बजाइये। पाश (प्रत्यंचा बाँधने के सिरे) उसके उपधान (खूँटियाँ) हैं, प्रत्यंचातार है, धनुष उसका दण्ड है और बाण ही उससे झंकृत होने वाले वर्ण (स्वर) है। ‘प्रभो! अब चाँदी के समान चमकीले वे श्वेत रंग के घोड़े आपके रथ में जोते जायँ और सिंह के चिह्न से सुशोभित सुवर्णमय ऊँचा ध्वज फहरा दिया जाय। ‘वीरवर! आपके हाथ बहुत मजबूत हैं। उनके द्वारा आपके चलाये हुए सोने की पाँख और स्वच्छ नोक वाले बाण शत्रुपक्ष के राजाओं की राह रोककर सूर्यदेव को भी ढक दें।
‘जैसे वज्रपति इन्द्र समस्त असुरों को परास्त कर देते हैं, उसी प्रकार आप युद्ध में सम्पूर्ण कौरवों को जीतकर महान यश प्राप्त करके पुनः इस नगर में प्रवेश करें। ‘मत्स्यराज के सुयोग्य पुत्र होने के कार आप ही इस राष्ट्र के महान आश्रय हैं। जैसे विजयी वीरों में श्रेष्ठ अर्जुन पाण्डवों के उत्तम आश्रय हैं, उसी प्रकार आप भी निश्चय ही इस राज्य के निवासियों की परम गति हैं। हम सभी मत्स्यदेशवासी आज आपको पाकर ही गतिमान (सनाथ) हैं’।
वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन! उस समय राजकुमार अन्तःपुर में स्त्रियों के बीच में बैठा था। वहीं उस गोपाध्यक्ष ने उससे ये निर्भय बनाने वाली बातें कहीं। अतः वह अपनी प्रशंसा करता हुआ इस प्रकार कहने लगा।[2]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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