द्रौपदी द्वारा कीचक को फटकारना

महाभारत विराट पर्व के कीचकवध पर्व के अंतर्गत अध्याय 14 में द्रौपदी द्वारा कीचक को फटकारने का वर्णन हुआ है[1]-

द्रौपदी का उत्तर

कीचक के इस प्रकार अशुभ (पापपूर्ण) वचन कहने पर सती-साध्वी द्रौपदी ने उसकी उन आछी बातो की निन्दा करते हुए इस प्रकार उत्तर दिया।

सैरन्ध्री बोली - सुतपुत्र! तु आज इस प्रकार मोह के फंदे में न पड़। अपनी जान न गँवा। तुझे मालूम होना चाहिये कि पाँच भयंकर गंधर्व मेरी नित्य रक्षा करते हैं। वे गन्धर्व ही मेरे पति हैं। तू कदापि मुझे पा नहीं सकता। मेरे पति कुपित होकर तुझे मार डालेंगे; अतः सँभल जा। इस पापबुद्धि का त्याग कर दे। अपना सर्वनाश न करा। अरे! तु उस राह पर जाना चाहता है, जहाँ दूसरे पुरुष नहीं जा सकते। जैसे नदी के एक किनारे पर बैठा हुआ कोई मन्दबुद्धि अचेत बालक दूसरे किनारे पर तैरकर जाना चाहता हो,वैसा ही विनाशकारी कार्य तू भी करना चाहता है। सूतपुत्र! मुझ पर कुदृष्टि डालकर पृथ्वी के भीतर (पाताल में) घुस जा, आकाश में उड़ जा अथवा समुद्र के उस पार भाग जा, तथापि मेरे पतियों के हाथ से तू छूट नहीं सकता; क्योकि मेरे पति देवताओं के पुत्र तथा आकाश में विचरने वाले हैं। वे अपने शत्रुओं को मथ डालने की शक्ति रखते हैं। सूतपुत्र! तू मेरा अपमान कर रहा है; अतः पुत्रों मथा बंधु-बान्धवों सहित तू आज ही शीघ्र नष्ट हो जायगा। तेरे विनाश में अब विलम्ब नहीं है। मैं वीर गन्धर्वों द्वारा सुरक्षित होने के कारण तेरे लिये सर्वथा दुर्लभ हूँ। मेरा अपमान करने से शीघ्र ही विवशता पूर्वक तेरा उसी प्रकार पतन होगा, जैसे ताड़ का फल अपने मूल स्थान से नीचे गिरता है। तू मुझे नहीं जानता, इसीलिये कामातुर होकर बहकी बहकी बातें कर रहा है। परंतु कोई असमर्थ पुरुष कितना ही प्रयत्न करे, वह पर्वत को नहीं लाँघ सकता। चाहे कोई सम्पूर्ण दिशाओं की शरण लेता फिरे, पर्वत की बड़ी-बड़ी कन्दराओं अथवा दुर्गम गुफाओं में छिप जाय या पृथ्वी के अंदर ही रहने लगे, होम और जप में संलग्न रहे, पर्वत के शिखर से कूद पड़े, जलती आग अथवा सूर्य की प्रचण्ड रश्मियों की शरण ले तो भी महात्मा गन्धर्वों की पत्नी का अपमान करने वाला पुरुष कभी किसी तरह भी उनके हाथ से जीवित नहीं बच सकता।

द्रौपदी द्वारा कीचक को फटकारना

तेरी ये बातें व्यर्थ होंगी। तेरे लिये मुझे पाना किसी महान पर्वत को तराजू पर तौलने के समान माहान असम्भव है। गर्मी की दोपहरी में जब किसी महान वन के भीतर प्रचण्ड दावानल धधक चुका हो, उस समय उसमें स्वयं ही घुसने वाले किसी आतुर पुरुष की भाँति तू भी अपने और समस्त कुल के विनाश के लिये ही वहाँ प्रवेश करना चाहता है। मैं यहाँ अपने स्वरूप को छिपाकर रहती हूँ। फिर भी तू मन से समझ-बूझकर मेरा अपमान करना चाहता है। किंतु याद रख, तू ऐसा करके यदि अपना जीवन बचाने के लिये देवताओं, गन्धर्वों और महर्षियों के निकट चला जाय अथवा नागलोक, असुरलोक तथा राक्षसों के निवास स्थान भी पहुँच जाय, तो भी तू वहाँ शरण नहीं पा सकेगा।

कीचक! जैसे कोई रोगी कालरात्रि का आवाहन करे, उसी प्रकार मुझे प्राप्त करने के लिये तू क्यों आज दुराग्रहपूर्ण प्रार्थना कर रहा है ? अरे। जैसे माता की गोद में सोया हुआ शिशु चन्द्रमा को ग्रहण करना चाहे, क्या तू उसी प्रकार मुझे पाना चाहता है? कीचक! उन गन्धर्वों की प्रियतमे ऐसी समुचित प्रार्थना करके पृथ्वी अथवा आकाश में भाग जाने पर भी तुझे कोई शरण देने वाला नहीं मिलेगा।[2] तुझे वह शुभ दृष्टि - वह बुद्धि नहीं प्राप्त होगी, जो तेरी मंगलकामना करे- जिससे तेरा जीवन सुरक्षित रह सके।[3]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत विराट पर्व अध्याय 14 श्लोक 44-50
  2. तू इतना कामान्ध हो गया है कि
  3. महाभारत विराट पर्व अध्याय 14 श्लोक 51

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