अर्जुन से दु:शासन आदि की पराजय

महाभारत विराट पर्व के गोहरण पर्व के अंतर्गत अध्याय 61 में अर्जुन से दुशासन आदि की पराजय का वर्णन हुआ है। यहाँ वैशम्पायन जी ने जनमेजय से अर्जुन से दुशासन आदि के पराजय की कथा कही है।[1]

अर्जुन द्वारा कुमार उत्तर को सान्त्वना देना

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! सव्यसाची अर्जुन के इस प्रकार सान्त्वना देने पर विराटकुमार उत्तर ने भीष्म जी के द्वारा सब ओर से सुरक्षित रथियों की भयंकर सेना में प्रवेश किया। रण भूमि मेें कौरवों को जीतने की इच्छा से आते हुए महाबाहु अर्जुन को कठोर कर्म करने वाले गंगानन्दन भीष्म ने बिना किसी घबराहट के रोक दिया। तब अर्जुन ने उनकी ओर घूमकर सुनहरी धार वाले बाणों से भीष्म जी की ध्वजा को जड़ से काट गिराया, बाणों से छिद जाने के कारण वह ध्वजा पृथ्वी पर गिर पड़ी। इतने ही में विचित्र माला और आभूषणों से विभूषित और अस्त्र संचालन की विद्या में निपुण चार महाबली मनस्वी वीर दुःशासन, विकर्ण, दुःसह और विविंशति वहाँ भयंकर धनुष वाले अर्जुन पर चढ़ आये और वहाँ आकर उन्होंने उग्रधन्वा बीभत्यसु को चारों ओर से घेर लिया।[1]

अर्जुन से दु:शासन आदि की पराजय

वीर दुःशासन ने भल्ल नामक एक बाण से विराट कुमार उत्तर को घायल करके दूसरे से अर्जुन की छाती छेद डाली। तब अर्जुन उसकी ओर मुड़े और मोटी धार और गीध की पाँख जैसे पंख वाले बाण से दुःशासन के सुवर्ण जटित धनुष को काट डाला। तत्पश्चात् उसकी छाती में भी पाँच बाण मारे। पार्थ के बाणों से अत्यनत पीड़ित हो दुःशासन युद्ध छोड़कर भाग गया। तब धृतराष्ट्र पुत्र विकर्ण ने शत्रुवीरों का नाश करने वाले अर्जुन को सीधे लक्ष्य की ओर जाने वाले गृध्रपत्र युक्त तीखे बाणों से बींध डाला।

तत्पश्चात् कुन्तीनन्दन अर्जुन ने झुकी हुई गाँठ वाले बाण से उसको भी ललाट में बींध डाला। उस बाण से घायल होकर विकर्ण तुरंत ही रथ से नीचे गिर पड़ा। तब दुःसह और विविंशति अर्जुन की ओर दौड़े और युद्ध में भाई का बदला लेने के लिये उनके ऊपर तीखे बाणों की वर्षा करने लगे। फिर धनंजय ने गृध्र की पाँख वाले दो तीखे बाणों द्वारा उन दोनों को एक ही साथ घायल करके बिना किसी घबराहट के उनके घोड़ों को भी मार गिराया। घोड़ों के मारे जाने और शरीर के बिंध जाने पर उन दोनों धृतराष्ट्र कुमारों के पास उनके सेवक आ पहुँचे और उन्हें दूसरे रथ पर डालकर अन्यत्र हटा ले गये। किसी से परास्त न होने वाले किरीट मालाधारी महाबली कुन्तीनन्दन अर्जुन का निशाना कभी चूकता नहीं था। ये उस सेना में सब ओर विचरने लगे।[2]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत विराट पर्व अध्याय 61 श्लोक 26-37
  2. महाभारत विराट पर्व अध्याय 61 श्लोक 38-46

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