अर्जुन और भीष्म का अद्भुत युद्ध

महाभारत विराट पर्व के गोहरण पर्व के अंतर्गत अध्याय 64 में अर्जुन और भीष्म का अद्भुत युद्ध का वर्णन हुआ है[1]-

अर्जुन और भीष्म के मध्य युद्ध

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्तर भरतवंश के सुप्रसिद्ध वीर शान्तनु नन्दन पितामह भीष्म अपने पक्ष के योद्धाओं का संहार होते देख अर्जुन की ओर दौड़े। उन्होंने हाथ में सुवर्ण भूषित श्रेष्ठ धनुष और शत्रुओं को मथ डालने वाले तीखे एवं मर्मभेदी बाण ले रक्खे थे। उनके मस्तक पर श्वेत छत्र तना हुआ था, जिससे वे नररेष्ठ भीष्म सूयोदय काल में उदयाचल की भाँति सुशोभित हो रहे थे। गंगा नन्दन भीष्म ने शंख बजाकर धृतराष्ट्र के पुत्रों का हर्ष बढ़ाया और दाहिनी ओर मुड़कर अर्जुन को आगे बढ़ने से रोका। शत्रुवीरों का हनन करने वाले कुन्ती कुमार धनंजय ने भीष्म को आते देख प्रसन्नचित्त होकर उनका सामना किया; ठीक उसी तरह, जैसे पर्वत अविचल भाव से खड़ा हो जल बरसाने वाले मेघ का आघात सहन करता है। तब पराक्रमी भीष्म ने पार्थ की ध्वजा पर फुफकारते हुए सर्पों के समान अत्यन्त वेगशाली आठ बाण मारे। उन बाणों ने पाण्डु नन्दन अर्जुन की ध्वजा के समीप पहुँच कर वहाँ बैठे हुए तेजस्वी वानर को तथा ध्वजा के अग्र भाग में निवास करने वाले अन्य भूतों को भी गहरी चोट पहुँचायी। तब पाण्डु कुमार ने मोटी धार वाले विशाल भल्ल के द्वारा भीष्म का छत्र काट दिया, जिससे वह तुरंत ही पृथ्वी पर गिर पड़ा। फिर कुन्ती नन्दन ने शीघ्रता करते हुए उनकी ध्वजा को भी अपने बाणों से छेद डाला और रथ के घोड़ों, पाश्र्वरक्षकों तथा सारथि को भी बहुत घायल कर दिया।

भीष्म जी अपने सैनिकों पर किये गये अर्जुन के उस पराक्रम को सह न सके। वे यह जानते हुए भी कि से पाण्डु पुत्र धनंजय हैं, महान दिव्यास्त्र द्वारा उन पर बाणों की वर्षा करने लगे। परंतु असीम आत्मबल से सम्पन्न पाण्डु पुत्र अर्जुन जैसे पर्वत महामेघ का सामना करता है, उसी प्रकार भीष्म पर दिव्यास्त्रों का प्रयोग करते हुए उनका सामना करने लगे।। उन दोनों का यह तुमुल युद्ध रोंगटे खड़े कर देने वाला था। पार्थ के साथ भीष्म का वह संग्राम बलि और इन्द्र के युद्ध के समान था। समस्त कौरव योद्धा अपने सैनिकों के साथ खड़े खड़े तमाशा देखने लगे। रण भूमि में भीष्म और पाण्डु कुमार के भल्ल ऐ दूसरे से टकराकर वर्षा काल के आकाश में जुगनुओं की भाँति चमक उठते थे।

अर्जुन और भीष्म द्वारा युद्ध में दिव्यास्त्रों का प्रयोग

राजन! दाँयें-बाँयें बाण फेंकने वाले पार्थ के द्वारा घुमाया जाता हुआ गाण्डीव धनुष अलात चक्र के समान जान पड़ता था। तदनन्तर जैसे मेघ अपनी जलधाराओं से पर्वत को भी आच्छादित कर देता ह।, उसी प्रकार अर्जुन ने सैंकड़ों पैने बाणों से भीष्म को ढँक दिया। जैसे समुद्र में ज्वार आ गया हो, उसी प्रकार वहाँ प्रकट हुई उस बाण वर्षा को भीष्म ने अपने सायकों से छिन्न भिन्न कर दिया और पाण्डु पुत्र अर्जुन को कुण्ठित कर दिया। तदनन्तर रण भूमि में कटकर टुकड़े-टुकड़े हुए वे बाण समूह अर्जुन के रथ पर बिखरने लगे। इसके बाद पुनः पाण्डु पुत्र अर्जुन के रथ से टिड्डियों के दल की भाँति तुरंत ही सोने के पंख वाले बाणों की वर्षा प्रारम्भ हुई; किंतु भीष्म ने सैेंकड़ों पैने बाणों द्वारा उसे फिर शान्त कर दिया। उस समय समस्त कौरव साधुवाद देते हुए बोल उठे- ‘अहो! भीष्म जी ने यअ दुष्कर पराक्रम किया, जो कि अर्जुन के साथ युद्ध किया’। अर्जुन बलवान, तरुण? कुशल और शीघ्रता पूर्वक बाण चलाने वाले हैं। शान्तनु नन्दन भीष्म, देवकी नन्दन श्रीकृष्ण अथवा आचार्य प्रवर महाबली भरद्वाज नन्दन द्रोण के सिवा दूसरा कौन ऐसा है, जो संग्राम में पार्थ का वेग रोक सके? वे दोनों भरत कुल शिरोमणि महाबली वीर समसत प्राणियों के नेत्रों में मोह एवं आश्चर्य उत्पन्न करते हुए अस्त्रों द्वारा एक दूसरे के अस्त्रों का निवारण करके खेल सा कर रहे थे। प्रजापत्य, ऐन्द्र, आग्नेय, भयंकर रौद्र, कौबेर, वारुण, याम्य तथा वायव्य अस्त्रों का प्रयोग करते हुए वे दोनों महापुरुष समर भूमि में विचर रहे थे। उस समय युद्ध में उन दोनों की ओर देखकर सब प्राणी आश्चर्य चकित हो बोल उठते थे- ‘महाबाहु पार्थ! साधुवाद, महाबाहु भीष्म! साधुवाद। ‘भीष्म और मार्थ के युद्ध में जो यह बड़े-बड़े दिव्यास्त्रों का महान प्रयोग देखा जा रहा है, यह मनुष्यों में अन्यत्र कहीं सम्भव नहीं है’।

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! इस प्रकार सम्पूर्ण अस्त्रों के ज्ञाता भीष्म और अर्जुन में कुछ काल तक दिव्यास्त्रों का युद्ध चलता रहा। उसके समाप्त हो जाने पर पुनः बाण युद्ध प्रारम्भ हुआ। तदनन्तर विजयशील अर्जुन ने निकट आकर छुरे के समान धार वाले एक बाण से भीष्म के सुवर्ण भूषित धनुष को काट डाला। किंतु विशाल भुजाओं वाले महारथी भीष्म ने पलक मारते-मारते उस युद्ध में दूसरा धनुष ले उस पर प्रत्यन्चा चढ़ा दी और क्रोध में भरकर धनंजय पर बहुत से बाणों का प्रहार किया।[2] तब महातेजस्वी अर्जुन ने भी भीष्म पर बहुत से पैने बाण फेंके और भीष्म ने भी पाण्डु पुत्र को अनेक तीखे बाण मारे। राजन! ये दोनों महात्मा दिव्यास्त्रों के पण्डित थे और एक दूसरे पर पैने बाण फेंक रहे थे। उस समय उन दोनों में कोई अन्तर नहीं दिखायी दे रहा था। किरीटमाली कुन्ती कुमार अर्जुन और शान्तनु नन्दन भीष्म दोनों ही अतिरथी वीर थे। उन्होंने अपने बाणों से दसों दिशाओ को आच्छादित कर दिया। राजा जनमेजय! उस युद्ध में कभी पाण्डु पुत्र अर्जुन भीष्म से बढ़ जाते थे, तो कभी भीष्म ही अर्जुन को लाँघ जाते थे। जगत में यह एक अद्भुत बात थी। राजन! भीष्म के रथ की रक्षा करने वाले शूरवीर सैनिक अर्जुन के द्वारा मारे जाकर उनके रथ के दोनों ओर पड़े थे। तदनन्तर श्वेतवाहन अर्जुन के पंखधारी बाण गाण्डीव धनुष से छूटकर संसार को शत्रु रहित करने की इच्छा से सब ओर आने लगे। उनके रथ निकलते हुए सुनहरे पंख वाले श्वेत बाण आकाश में हंसों की पंक्ति से दिखायी देते थे। अर्जुन विचित्र ढंग से मर्मभेदी दिव्यास्त्रों का प्रयोग कर रहे थे और आकाश में खड़े हुए इन्द्र आदि सम्पूर्ण देवता उनका वह अस्त्र कौशल देख रहे थे। उस समय प्रतापी चित्रसेन गन्धर्व ने अर्जुन की ओर देखकर अत्यन्त प्रसन्न हो देवराज इन्द्र से उनके विचित्र एवं अद्भुत रण कौशल की प्रशसा करते हुए कहा- ‘प्रभो! देखिये, ये पार्थ के छोड़े हुए बाण परस्पर सटे हुए से जा रहे हैं। दिव्यास्त्र प्रकट करने वाले अर्जुन की यह अस्त्र संचालन कला विचित्र एवं अद्भुत है। ‘दूसरे मनुष्य इस दिव्यास्त्र का संधान नहीं कर सकते; क्योंकि यह अस्त्र दूसरे मनुष्यों के पास है ही नहीं। यहाँ प्राचीन काल के बड़े-बड़े अस्त्रों का अद्भुत समागम हुआ है। ‘अर्जुन कब बाण निकालते हैं, कब चढ़ाते हैं, कब छोड़ते हैं और कब गाण्डीव धनुष को खींचते हैं तथा इन क्रियाओं में कितना अन्तर पड़ता है; यह सब किसी को दिखायी ही नहीं देता था।[3]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत विराट पर्व अध्याय 64 श्लोक 1-13
  2. महाभारत विराट पर्व अध्याय 64 श्लोक 14-28
  3. महाभारत विराट पर्व अध्याय 64 श्लोक 29-40

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