द्रौपदी का भीमसेन के समीप जाना

महाभारत विराट पर्व के कीचकवध पर्व के अंतर्गत अध्याय 17 में द्रौपदी का भीमसेन के समीप जाने का वर्णन हुआ है[1]-

द्रौपदी द्वारा कीचक के वध के बारे में सोचना

वैशम्पायनजी कहते हैं- राजन्! सूतपुत्र सेनापति कीचक ने जब से लात मारी थी, तभी से यशस्विनी राजपत्नी भामिनी द्रौपदी उसके वध की बात सोचने लगी। वह अपने निवास स्थान पर गयी। उस समय सूक्ष्म कटिभाग वाली द्रुपदकुमार कृष्णा ने वहाँ यथायोग्य शौच स्नान करके जल से अपने शरीर और वस्त्र धोये तथा वह रोती हुई उस दुःख के निवारण का उपाय सोचने लगी- ‘क्या करू, कहाँ जाऊँ ? कैसे मेरा अभीष्ट कार्य होगा, इस प्रकार चिन्तन करके उसने मन-ही-मन भीमसेन का स्मरण किया। ‘भीमसेन के सिवा दूसरा कोई आज मेरे मन को प्रिय लगने वाला कार्य नहीं कर सकता,- ऐसा निश्चय करके वह विशाल नेत्रों वाली सती-साघ्वी सनाथा कृष्णा रात को अपनी शय्या छोड़कर उठी और अपने नाथ (रक्षक) से मिलने की इच्छा रखकर शीघ्रतापूर्वक भीमसेन के भवन में गयी।

द्रौपदी का भीमसेन के समीप जाना

उस समय मनस्विनी द्रौपदी महान मानसिक दुःख से पीड़ित थी। वहाँ पहुँचते ही सैरन्ध्री बोली- आर्यपुत्र! मुझसे द्वेष रखने वाले उस महापापी सेनापति के, जिसने मेरे साथ वैसा अपमान जनक बर्ताव किया था, जीते-जी तुम आज नींद कैसे ले रहे हो ?

वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन! ऐसा कहती हुई मनस्विनी द्रौपदी ने उस भवन में प्रवेश किया, जिसमें सिंह की भाँति साँसें खींचतं हुए भीमसेन सो रहे थे। कुरुनन्दन! द्रौपदी दिव्य रूप से महातमा भीम की वह पाकशाला शोभा-समृद्धि को प्राप्त होकर तेज से प्रकाशित हो उठी। पवित्र मुस्कान वाली द्रौपदी पाकशाला पहुँचकर क्रमशः[2] जल में उत्पन्न हुई बकी, तीन साल की पार्थिव गौ तथा हथिनी कके समान रेष्ठ पुरुष भीमसेन के समीप गयीं। जैसे लता गोमती के तट पर उत्पन्न एवं खिले हुए ऊँचे शालवृक्ष में लिपट जाती है, उसी प्रकार सती-साध्वी पाञ्चाली ने मध्यम[3]पाण्डव भीमसेन का आलिंगन किया। उसने उन्हें दोनों भुजाओं से कसकर जगाया; ठीक वैसे ही, जैसे दुर्गम वन में सोये हुए सिंह को सिंहनी जगाती है। जैसे हथिनी महान गजराज का आलिंगन करती है, उसी प्रकार निर्दोष पाञ्चालराजकुमारी भीमसेन से सटकर गान्धार स्वर में मधुर ध्वनि फैलाती हुई वीणा की भाँति मीठे वचनों में बोली-‘भीमसेन! उठो, उठा, क्यों मुर्दे की तरह सो रहे हो ?; क्योकि (तुम्हारे जैसे वीर) पुरुष के जीवित रहते हुए उसकी पत्नी का स्पर्श करके कोई महापापी मनुष्य जीवित नहीं रह सकता’। राजकुमारी द्रौपदी के जगाने पर मेघ के समान श्याम वर्ण वाले कुरुनन्दन भीमसेन ताशक बिछे हुए पलंग पर शयन छोड़कर उठ बैठे।

भीमसेन का संवाद

अपनी प्यारी रानी से बोले- ‘देवि! किस कार्य से तुम इतनी उतावली सी होकर मेरे पास आयी हो? तुम्हारे शरीर की कान्ति स्वाभाविक नहीं रह गयी है। तुम पर उदासी छायी है। तुम दुबली और पीली दिखायी देती हो। पूरी बात बताओ, जिससे मैं सब कुछ जान सकूँ। ‘तुम्हें सुचा हो या दुःख, बुरा हो या भला, सब बातें ठभ्क-ठीक कह जाओ। वह सब सुनकर में उसके निवारण के लिये उचित उपाय सोचूँगा।

‘कृष्णे! सब कार्यों के लिये मैं ही तुम्हारा विश्वासपात्र हूँ। मैं ही सब प्रकार की विपत्तियों में बार-बार सहायता करके तुम्हें संकट से मुक्त करता हूँ। अतः जैसी तुम्हारी रुचि हो और जिस कार्य के लिये कुछ कहना चाहती हो, उसे शीघ्र कहकर पहले ही अपने शयन कक्ष में चली जाओ, जिससे दूसरे किसी को इसका पता न चल सके’।[4]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत विराट पर्व अध्याय 17 श्लोक 1-19
  2. बक, साँड और गजराज के पास जाने वाली
  3. नकुल-सग्देव जुड़वें पैदा हुए थे; अत: वे दोनों कनिष्ठ छोटे भाई हैं। युधिष्ठिर बड़े हैं।भीमसेन और अर्जुन मध्यम हैं। विराटपर्व के प्रसंग में अर्जुन पुरुष नहीं रह गये हैं। अत: भीमसेन ही यहाँ प्रधान रूप से पाण्डव कहे गये हैं।
  4. महाभारत विराट पर्व अध्याय 17 श्लोक 20-21

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