- महाभारत विराट पर्व के गोहरण पर्व के अंतर्गत अध्याय 61 में अर्जुन का उत्तरकुमार को आश्वासन देने का वर्णन हुआ है। यहाँ वैशम्पायन जी ने जनमेजय से अर्जुन का उत्तरकुमार को आश्वासन देने की कथा कही है।[1]
विषय सूची
अर्जुन-उत्तर संवाद
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! इस प्रकार वैकर्तन कर्ण को जीतकर अर्जुन ने विराटकुमार उत्तर से कहा- ‘सारथे! तुम मुझे इस सेना की ओर ले चलो, जिसकी ध्वजा पर सुवर्णमय ताड़ वृक्ष का चिह्न है। ‘उस रथ पर हम सबके पितामह शन्तनुनन्दन भीष्म जी बैठे हैं। वे मेरे साथ युद्ध की इच्छा रचाकर खड़े हैं। उनका दर्शन देवताओं के समान है।’ यह सुनकर उत्तर ने, जो बाणों से अत्यन्त घायल हो चुका था, रथों, हाथियों और घोड़ों से भरी हुई विशाल सेना की ओर देखकर कहा- ‘वीर! अब मैं युद्ध भूमि में आपके उत्तम घोड़ों को नहीं सम्हाल सकूँगा। मेरे प्राण बड़ी व्यथा में हैं और मन व्याकुल सा हो रहा है। ‘आपके तथा कौरव वीरों के द्वारा प्रयुक्त होने वाले दिव्यास्त्रों का प्रभाव यह हैं कि मुझे दसों दिशाएँ भागती सी प्रतीत होती हैं। ‘मैं चर्बी, रक्त और मेद की गन्ध से मूर्च्छित हो रहा हूँ। आज आपके देखते- देखते मेरा मन दुविधा में पड़ गया है।
‘युद्ध में इतने शूरवीरों का जमघट मैंने पहले कभी नहीं देखा था। वीरवर! गदाओं के भारी आघात, शंखों के भयंकर शब्द, शूरवीरों के सिंहनाद, हाथियों के चिग्घाड़ तथा वज्र की गड़गड़ाहट के समान गाण्डीव धनुष की भारी टंकार ध्वनि से मेरा चित्त मोहित हो गया है। मेरी श्रवण्ध शक्ति और स्मरण शक्ति भी जवाब दे चुकी है। ‘रण भूमि में आप निरन्तर गाण्डीव धनुष को खींचते और टंकारते रहते हैं, जिससे यह अलातचक्र के समान गोल प्रतीत होता है। उसे देखकर मेरी आँखें चैंधियाँ रही हैं तथा हृदय फटा सा जा रहा है। ‘इस संग्राम में कुपित हुए पिनाकपणि भगवान रुद्र की भाँति आपका शरीर भयानक जान पड़ता है और लगातार धनुष बाण चलाने के व्यायाम में संलग्न रहने वाले आपकी भुजाओं को देखकर भी मुझे भय लगता है। ‘आप कब उत्तम बाणों को हाथों में लेते, कब धनुष पर रखते और कब उन्हें छोड़ते हैं, यह सब मैं नहीं देख पाता और देखने पर भी मुझे चेत नहीं रहता। इस समय मेरे प्राण अकुला रहे हैं। यह पृथ्वी काँपती सी जान पड़ती है। इस समय मुझमें इतनी शक्ति नहीं है कि घोड़ों की रास सँभाल सकूँ और चाबुक लेकर इन्हें हाँकूँ’।
अर्जुन बोले- नरश्रेष्ठ! डरो मत। अपने आपको सँभालो तुमने भी युद्ध के मुहाने पर बड़े अद्भुत पराक्रम दिखाये हैं।[1]
तुम राजकुमार हो। तुम्हारा कल्याण हो। तुमने मत्स्य नरेश के विख्यात वंश में जन्म ग्रहण किया है; अतः शत्रुओं के संहार के अवसर पर तुम्हें शिथिल नहीं होना चाहिये। राजपुत्र! तुम तो शत्रुओं का नाश करने वाले हो, अतः पूर्ण रूप से धैर्य धारण करके रथ पर बैठो और युद्ध करते समय मेरे घोड़ों को काबू में रक्खो।
अर्जुन कथन
वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन! इस प्रकार समझा बुझाकर रथियों में श्रेष्ठ और मनुष्यों मे सर्वोत्तम महाबाहु अर्जुन विराटकुमार उत्तर से पुनः यह वचन बोले- ‘राजकुमार! तुम शीघ्र ही पितामह भीष्म की इसी सेना के सामने मेरा रथ ले चलो, मुझे पहुँचाओ। इस युद्ध में मैं इनकी प्रत्यन्चा भी काट डालूँगा। ‘आज मुझे विचित्र दिव्यास्त्रों का प्रहार करते देखो। जैसे आकाश में मेघों की घटा से बिजली प्रकट होती है, उसी प्रकार[2]मेरे गाण्डीव धनुष को, जिसके पृष्ठ भाग में सोना मढ़ा है, आज कौरव लोग विस्मित होकर देखेंगे। आज सारी शत्रु मण्डली इकट्ठी होकर यह अनुमान लगायेगी कि अर्जुन किस हाथ से बाण चलाते हैं? दाहिने हाथ से या बायें से? आज मैं परलोक की ओर प्रवाहित होने वाली [3] दुर्लंघ्य नदी को मथ डालूँगा, जिसमें रक्त ही जल है, रथ भँवर है और हाथी ग्राह के स्थान में हैं।
अर्जुन द्वारा उत्तरकुमार को आश्वासन
आज झुकी हुई गाँठ वाले बाणों द्वारा कौरव सेना रूपी जंगल को काट डालूँगा। हाथ, पैर, सिर, पृष्ठ ( पीठ ) तथा बाहु आदि अंग ही विविध शाखाओं के रूप में फैलकर इस कौरव वन को सघन किये हुए हैं। ‘जैसे वन में लगे हुए दावानल को आगे बढ़ने के लिये सैंकड़ों मार्ग सुलभ होते हैं, उसी प्रकार कौरव सेना पर विजय पाने वाले मुझ एकमात्र धनुर्धर वीर के लिये इसमें सैंकड़ों मार्ग प्रकट हो जायँगे। ‘मेरे बाणों से घायल हुई सारी सेना को तुम चक्र की भाँति घमूती हुई देखोगे। आज तुम्हें बाण विद्या में प्राप्त की हुई अपनी विचित्र शिक्षा का परिचय कराऊँगा। ‘तुम सम- विषम (ऊँची - नीची) भूमियों में सम्भ्रम रहित (सावधान) होकर रथ पर बैठो[4] आज मैं सारे आकाश को घेरकर खड़े हुए [5]पर्वत को भी अपने बाणों से विदीर्ण कर डालूँगा। ‘मैंने पहले देवराज इन्द्र की आज्ञा से युद्ध में उनके शत्रु पौलोम और कालचान्ज नामक लाखों दानवों का वध किया है।[6]
तुम्हें यह मालूम होना चाहिये कि मैंने मालूम होना चाहिये कि मैंने धनुष पकड़ते समय मुट्ठी को दृढ़ रखना इन्द्र से, बाण चलाते समय हाथों की फुर्ती ब्रह्मा जी से तथा संकट के समय विचित्र प्रकार के तुमुल युद्ध करने की कला प्रजापति से सीखी है। ‘पहले की बात है, मैंने समुद्र के उस पार हिरण्यपुर में निवास करने वाले साठ हजार भयंकर धनुर्धर महारथियों को परास्त किया था। ‘आज देख लेना, जैसे प्रबल वेग से आयी हुई जल की बाढ़ किनारों को काट-काट कर गिरा देती है, उसी प्रकार मैं कौरव दल के सैन्य समूहों को गिराऊँगा। ‘कौरवों की सेना एक जंगल के समान है, उसमें ध्वज ही वृक्ष हैं, पैदल सैनिक घास फूस हैं तथा रथ ही सिंहों के स्थान में हैं। मैं अपने अस्त्र शस्त्र रूपी अग्नि से आज इस कौरव वन को जलाकर भस्म कर दूँगा। ‘जैसे व्याघ्र घोंसले में बैठे हुए पक्षियों को भी मार गिराता है, उसी प्रकार मैं मुड़ी हुई नोक वाले ( तीखे ) बाणों से मारकर उन सभी कौरव वीरों को रथों की बैठकों से नीचे गिरा दूँगा। जैसे वज्रधारी इन्द्र अकेले ही समस्त असुरों का संहार कर डालते हैं, उसी प्रकार मैं भी अकेला ही यहाँ युद्ध के लिये सावधान होकर खड़े हुए सावधान होकर खड़े हुए समसत महाबली योद्धाओं का भली-भाँति विनाश कर डालूँगा। ‘मैंने भगवान रुद्र से रौद्रास्त्र की वरुण से वारुणास्त्र की शिक्षा प्राप्त की है। इसी प्रकार साक्षात इन्द्र से मैंने वज्र आदि अस्त्र प्राप्त किये हैं। ‘वीर मानव रूपी सिंहों से सुरक्षित इस भयंकर कौरव वन को मैं अकेला ही उजाड़ डालूँगा, अतः विराट कुमार तुम्हारा भय दूर हो जाना चाहिये।’[7]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत विराट पर्व अध्याय 61 श्लोक 1-13
- ↑ बाणों की विद्युच्छटा प्रकट करने वाले
- ↑ शत्रु सेना रूप
- ↑ और घोड़ों की संभाल रखो।
- ↑ महान
- ↑ महाभारत विराट पर्व अध्याय 61 श्लोक 14-25
- ↑ महाभारत विराट पर्व अध्याय 61 श्लोक 26-37
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