युधिष्ठिर का अनुग्रह करके सुशर्मा को मुक्त करना

महाभारत विराट पर्व के गोहरण पर्व के अंतर्गत अध्याय 33 में युधिष्ठिर का अनुग्रह करके सुशर्मा को मुक्त करने का वर्णन हुआ है[1]-

भीमसेन का संवाद

वैशम्पायन जी कहते हैं- भारत! वे सभी अपने बाहुबल से सम्पन्न, लज्जाशील, संयमपूर्वक व्रत पालन में तत्पर, महात्मा तथा विराट का सारा क्लेश दूर करने वाले थे। जब वे सब राजा के सामने आकर खड़े हुए, तब भीमसेन बोले- ‘यह पापाचारी सुशर्मा मेरे हाथ से छूटकर जीवित रहने योग्य तो नहीं है; परंतु मैं कर ही क्या सकता हूँ , हमारे महाराज सदा के दयालु हैं’।

भीमसेन द्वारा सुशर्मा को बाँधना

इसके बाद भीम राजा सुशर्मा का गला पकड़कर ले आये। उस समय वह लाचार होकर उनके वश में पड़ा था और छूटने के लिये छटपटा रहा था। कुन्तीपुत्र भीम ने सुशर्मा को रसिस्यों से बाँधकर रथ पर रचा दिया। उसके सारे अंग धूल से सने थे और चेतना लुप्त सी हो रही थी। इसके बाद भीम ने रणभूमि मे स्थित राजा युधिष्ठिर के पास जाकर उन्हें राजा सुशर्मा को दिखाया।

युधिष्ठिर द्वारा अनुग्रह करने पर सुशर्मा को मुक्त करना

भीम युद्ध में अत्यन्त सुशोभित होते थे। पुरुषश्रेष्ठ राजा युधिष्ठिर सुशर्मा को उस दशा में देखकर हँसे और भीमसेन से बोले- ‘इस नराधम को छोड़ दो।’ उनके ऐसा कहने पर भीम महाबली सुशर्मा से बोले।

भीमसेन ने कहा- मूर्ख! यदि तू जीवित रहना चाहता है, तो उसका उपाय बताता हूँ; मेरी बात सुन। तुझे सांसदों और सभाओं में जाकर सदा यही कहना होगा कि ‘मैं राजा विराट का दास हूँ’। ऐसा स्वीकार हो तो तुझ जीवन-दान दूँगा। युद्ध में जीतने वाले पुरुषों का यही नियम है। तब बड़े भ्राता युधिष्ठिर ने भीम से प्रेमपूर्वक कहा।

तब युधिष्ठिर बोले- भैया! यदि तुम मेरी बात मानते हो तो इस पापाचारी को ‘छोड़ दो, छोड़ दो’। यह महाराज विराट का दास तो हो ही चुका है। (इसके बाद वे सुशर्मा से बोले-) ‘तुम दास नहीं रहे, जाओ, छोड़ दिये गये। फिर कभी -ऐसा काम न करना’।[2]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत विराट पर्व अध्याय 33 श्लोक 35-54
  2. महाभारत विराट पर्व अध्याय 33 श्लोक 55-61

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