द्रोणाचार्य द्वारा दुर्योधन की रक्षा के प्रयत्न

महाभारत विराट पर्व के गोहरण पर्व के अंतर्गत अध्याय 51 में द्रोणाचार्य द्वारा दुर्योधन की रक्षा के प्रयत्न का वर्णन हुआ है[1]-

अर्जुन के गुणों का यहाँ वर्णन

वैशम्पायन जी कहते हैं - जनमेजय! अश्वत्थामा ने कहा- पुरुषश्रेष्ठ! हमारी न्यायोचित बात की निन्दा नहीं की जानी चाहिये। आचार्य द्रोण ने पाण्डवों पर हुए पहले के अन्यायों का स्मरण करके रोष पूर्वक अर्जुन के गुणों का यहाँ वर्णन किया है।[2] शत्रु के गुण ग्रहण करने चाहिये और गुरु के भी दोष बताने में संकोच नहीं करना चाहिये। गुरु को सग प्रकार से पूर्ण प्रयत्न करके पुत्र और शिष्य के लिये जो हितकर हो, वही बात कहनी चाहिये।

द्रोणाचार्य द्वारा दुर्योधन की रक्षा के प्रयत्न

दुर्योधन ने कहा- आचार्य! क्षमा करें, अब शान्ति धारण करनी चाहिये। यदि गुरु के मन में भेद न हो, तभी यह समझा जायगा कि पहले जो बातें कही गयी हैं, उनमें रोष ही कारण था।

वैशम्पायन जी कहते हैं - जनमेजय! तदनन्तर दुर्योधन ने कर्ण, भीष्म और महात्मा कृपाचार्य के साथ आचार्य द्रोण से क्षमा माँगी।

तब द्रोण बोले- शान्तनु नन्दन भीष्म जी ने पहले जो बात कही थी, उसी से मैं प्रसन्न हूँ। अब मेरी नीति से काम लेना चाहिये, उसी से मैं प्रसन्न हूँ। अब ऐसी नीति से काम लेना चाहिये, जिससे अर्जुन इस युद्ध में दुर्योधन के पास तक न पहुँच सकें। साहस से अथवा प्रमादवश भी दुर्योधन पर उनका आक्रमण न हो, ऐसी नीति निर्धारित करनी चाहिये। वनवास की अवधि पूर्ण हुए बिना अर्जुन अपने को प्रकट नहीं कर सकते थे। आज यदि वे यहाँ आकर अपना गोधन न पा सके, तो हमको क्षमा नहीं कर सकते।

ऐसी दशा में जैसे भी सम्भव हो; वे धृतराष्ट्र पुत्रों पर आक्रमण न कर सकें और किसी प्रकार भी कौरव सेनाओं को परास्त न करने पावें, ऐसी कोई नीति बनानी चाहिये। दुर्योधन ने भी ऐसी बात कही थी कि पाण्डवों का अज्ञातवास पूर्ण होने में संदेह है, अतः गुगा नन्दन भीष्म! आ स्वयं स्मरण करके यथार्थ बात क्या है- उनका अज्ञातवास पूर्ण हो गया है या नहीं, इसका निर्णय करें।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत विराट पर्व अध्याय 51 श्लोक 14-22
  2. भेद उत्पन्न करने के लिये नहीं

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पांडवप्रवेश पर्व
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