दुर्योधन द्वारा युद्ध का निश्चय

महाभारत विराट पर्व के गोहरण पर्व के अंतर्गत अध्याय 47 में दुर्योधन द्वारा युद्ध निश्चय करने का वर्णन हुआ है। यहाँ वैशम्पायन जी ने जनमेजय से दुर्योधन द्वारा युद्ध निश्चय करने की कथा कही है।[1]

वैशम्पायन-जनमेजय संवाद

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्तर राजा दुर्योधन ने समर भूमि में भीष्म, रथियों में श्रेष्ठ द्रोण और महारथी कृपाचार्य से कहा- ‘आचार्यों! मैंने और कर्ण ने यह बात आप लोगों से कई बार कही है और फिर उसी बात को दुहराता हूँ; क्योंकि उसे बार बार कहकर भी मुझे तृपित नहीं होती। ‘जूआ खेलते समय हम लोगों की यही शर्त थी कि हममें से जो हारेंगे, उन्हें बारह वर्षों तक किसी वन में प्रकट रूप से और एक वर्ष तक किसी नगर में अज्ञात भाव से निवास करना पड़ेगा। ‘अभी पाण्डवों का तेरहवाँ वर्ष पूरा नहीं हुआ है, तो भी अज्ञातवास में रहने वाला अर्जुन आज प्रकट रूप से हमारे साथ युद्ध करने आ रहा है। ‘यदि अज्ञातवास पूर्ण होने के पहले ही अर्जुन आ गया है, तो पाण्डव फिर बारह वर्षों तक वन में निवास करेंगे। ‘वे राज्य के लोभ में अपनी प्रतिज्ञा को स्मरण नहीं रख सके हैं या हम लोगों में ही मोह (प्रमाद) आ गया है। इनके तेरहवें वर्ष में अभी कुछ कमी है या अणिक दिन बीत गये हैं; यह भीष्म जी जान सकते हैं। ‘जिन विषयों में दुविधा पड़ जाती है, उनमें सदा संदेह बना रहता है।

दुर्योधन द्वारा युद्ध का निश्चय करना

किसी विषय को अन्य प्रकार से सोचा जाता है, किन्तु पता लगने पर वह किसी और ही प्रकार का सिद्ध होता है। ‘हम लोग मत्स्य देश के उत्तरगोष्ठ की खोज करते हुए यहाँ आये और मत्स्य देश के सैनिकों के साथ ही युद्ध करना चाहते थे। इस दशा में भी यदि अर्जुन हमसे युद्ध करने आया है, तो हम किसका अपराध कर रहे हैं? ‘मत्स्य निवासियों के साथ भी जो हम यहाँ युद्ध के लिये आये हैं, वह अपने स्वार्थ के लिये, त्रिगर्तों की सहायता के उद्देश्य से हमारा यहाँ आगमन हुआ है। त्रिगर्तों ने हमारे सामने मत्स्य देशीय सैनिकों के बहुत से अत्याचारों का वर्णन किया था। ‘वे भय से बहुत दबे हुए थे; इसलिये हमने उनकी सहायता के लिये प्रतिज्ञा की थी। हमारी उनकी बात यह हुई थी कि वे लोग सप्तमी तिथि को अपरान्ह काल में मत्स्य देश के[2]गोष्ठ पर आक्रमण करके वहाँ का महान गोधन अपने अणिकार में कर लें। ऐसा ही उन्होंने किया भी है। ‘साथ ही यह भी तै हुआ था कि हम लोग अष्टमी को सूर्योदय होते होते उत्तर गोष्ठ की इन गौओं को ग्रहण कर लें; क्योंकि उस समय मत्स्यराज गौओं के पद चिह्नों का अनुसरण करते हुए त्रिगर्तोें के पीछे गये होंगे।[1]

वे त्रिगर्त सैनिक गौओं को यहाँ ले आयेंगे अथवा यदि परास्त हो गये, तो हम लोगों से मिलकर पुनः मत्स्यराज के साथ युद्ध करेंगे। ‘अथवा यदि मत्स्यराज त्रिगर्तों को भगाकर अपने देश के लोगों एवं अपनी सारी भयंकर सेना के साथ इस रात में हम लोगों से युद्ध करने के लिये यहाँ आ रहे होंगे। ‘उन्हीं सैनिकों में से यह कोई महापराक्रमी योद्धा अगुआ बनकर हमें जीतने आया है। यह भी संभव है कि ये स्वयं मत्स्यराज ही हों। ‘यदि यह मत्स्यों का राजा विराट हो अथवा अर्जुन ही उसकी ओर से आया हो, तो भी हम सब लोगों को उससे युद्ध करना ही है; यह हमने प्रतिज्ञा कर ली है। ‘फिर ये हमारे श्रेष्ठ रथी महारथी भीष्म, द्रोण, कृप, विकर्ध और अश्वत्थामा आदि इस समय भ्रान्तचित्त हो रथों में चुपचाप बैठे हैं ?

युद्ध के सिवा और किसी बात में कल्याण नहीं है। यह समझकर अपने आपको इस परिस्थिति के अनुकूल बनाना चाहिये। ‘यदि स्वयं वज्रधारी इन्द्र अथवा यमराज ही युद्ध में आकर हमसे गोधन छीन लें, तो भी ऐसा कौन होगा, जो उनका सामना करना छोड़कर हस्तिनापुर को लौट जायेगा? ‘यदि कोई गहन वन में भागकर प्राण बचाना चाहे, तो मेरे इन बाणों से वे छिन्न-भिन्न कर दिये जायँगे। इस तरह भागने वाले पैदल सैनिकों में से कौन जीवित रह सकता है? घुड़सवारों के विषय में संदेह है।[3][4]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत विराट पर्व अध्याय 47 श्लोक 1-11
  2. दक्षिण
  3. वे भागने पर मारे भी जा सकते हैं और बच भी सकते हैं
  4. महाभारत विराट पर्व अध्याय 47 श्लोक 12-24

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