- महाभारत विराट पर्व के गोहरण पर्व के अंतर्गत अध्याय 68 में विराट द्वारा युधिष्ठिर का तिरस्कार और क्षमा-प्रार्थना वर्णन हुआ है[1]-
विषय सूची
युधिष्ठिर और विराट का संवाद
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! राजन! तदनन्तर सेना, सुन्दर वस्त्राभूषणों से विभूषित कन्याओं और वारांगनाओं को भेजकर परम बुद्धिमान मत्स्य नरेश हर्षोल्लास में भरकर इस प्रकार बोले। सैरन्ध्री! जा, पासे ले आ। कंक! जूआ प्रारम्भ हो।’ उन्हें ऐसा कहते देख पाण्डु नन्दन युधिष्ठिर बोले। ‘राजन! मैंने सुना है, जब चालाक जुआरी अत्यन्त हर्ष में भरा हो, तो उसके साथ जूआ नहीं खेलना चाहिये। आज आप भी बड़े आनन्द में मग्न हैं; अतः आपके साथ जूआ खेलने का साहस नहीं होता, तथापि आपका प्रिय कार्य तो करना ही चाहता हूँ, अतः यदि आपकी इचछा हो, तो खेल शुरू हो सकता है’।
विराट ने कहा- स्त्रियाँ, गौएँ, सुवर्ण तथा अन्य जो कोई भी धन सुरक्षित रक्खा जाता है, बिना जूए के वह सब मुझे कुछ नहीं चाहिये। ( मुझे तो जूआ ही सबसे अधिक प्रिय )।
कंक बोले- सबको मान देने वाले महाराज! आपको जूए से क्या लेना है? इसमें तो बहुत से दोष हैं। जूआ खेलने में अनेक दोष होते हैं, इसलिये इसे त्याग देना चाहिये। आपने पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर को देखा होगा अथवा उनका नाम तो अवश्य सुना होगा। वे अपने अत्यन्त समृद्धिशाली राष्ट्र को, देवताओं के समान तेजस्वी भाइयों कसे तथा समूचे राज्य को भी जूए में हार गये थे। अतः मैं जेए को पसंद नहीं करता। नाना प्रकार के रत्नों और धन को हार जाने के कारण अब वे जुआरी युधिष्ठिर निश्चय ही पश्चाताप करते होंगे। इस जूए में आसक्त होने पर राज्य का नाश होता है, फिर जुआरी एक दूसरे के प्रति कटु वचनों का प्रयोग करते हैं। जूआ एक ही दिन में महान धन राशि का नाश करने वाला है। अतः विद्वान् पुरुषों को इस ( धोखा देने वाले जूए ) पर कभी विश्वास नहीं करना चाहिये। राजन्! तो भी यदि आपकी रुचि और आग्रह हो, तो हम खेलेंगे ही।
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! जूए का खेल आरम्भ हो गया। खेलते-खेलते मत्स्यराज ने पाण्डु नन्दन से कहा- ‘देखो, आज मेरे बेटे ने यंद्ध में उन प्रसिद्ध कौरवों पर विजय पायी है’।
विराट द्वारा युधिष्ठिर का तिरस्कार और क्षमा-प्रार्थना
तब महात्मा राजा युधिष्ठिर ने विराट से कहा- ‘बृहन्नला जिसका सारथि हो, वह युद्ध में कैसे नहीं जीतेगा?’ यह सुनते ही मत्स्य नरेश कुपित हो उठे और पाण्डु नन्दन से बोले- ‘अधम ब्राह्मण! तू मेरे पुत्र के समान एक हिजड़े की प्रशंसा करता है। ‘क्या कहना चाहिये और क्या नहीं, इसका तुझे ज्ञान नहीं है। निश्चय ही तू अपनी बातों से मेरा अपमान कर रहा है। भला मेरा पुत्र भीष्म-द्रोण आदि समस्त वीरों को क्यों नहीं जीत लेगा ? ब्रह्मन्! मित्र होने के नाते ही मैं तुम्हारे इस अपराध को क्षमा करता हूँ। यदि जीने की इच्छा हो, तो फिर ऐसी बात न कहना’।
युधिष्ठिर बोले- जहाँ द्रोणाचार्य, भीष्म, अश्वत्थामा, कर्ण, कृपाचार्य, राजा दुर्योधन तथा अन्य महारथी उपसिथत हों, वहाँ बृहन्नला के सिवा दूसरा कौन पुरुष, चाहे वह देवताओं से घिरा हुआ साक्षात देवराज इन्द्र ही क्यों न हो, उन सब संगठित वीरों का सामना कर सकता है। बाहुबल में जिसकी समानता करने वाला न कोई हुआ है और न होगा ही, युद्ध का अवसर आया देखकर जिसे अत्यन्त हर्ष होता है, जिसने युद्ध में एकत्र हुए देवता, असुर और मनुष्य- सबको जीत लिया है, वैसे बृहन्नला जैसे सहायक के होने पर राजकुमार उत्तर विजयी क्यों न होंगे ?
विराट ने कहा - कंक! मैंने बहुत बार मना किया, तो भी तू अपनी जबान नहीं बंद कर रहा है। सच है, यदि शासन करने वाला राजा न हो, तो कोई भी धर्म का आचरण नहीं कर सकता।
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! इतना कहकर क्रोध में भरे हुए राजा विराट ने वह पासा युधिष्ठिर के मुख पर जोर से दे मारा तथा रोष पूर्वक डाँटते हुए उनसे कहा- ‘फिर कभी ऐसी बात न कहना’। पासे का आघात जोर से लगा था, अतः उनकी नाक से रक्त की धारा बह चली। किंतु धर्मात्मा युधिष्ठिर ने उस रक्त को पृथ्वी पर गिरने से पहले ही अपने दोनों हाथों में रोक लिया और पास ही खड़ी हुई द्रौपदी की ओर देखा। द्रौपदी अपने स्वामी के मन के अधीन रहने वाली और उनकी अनुगामिनी थी। उस सती-साध्वी देवी ने उनका अभिप्राय समझ लिया; अतः जल से भरा हुआ सुवर्णमय पात्र ले आकर युधिष्ठिर की नाक से जो रक्त बहता था, वह उसमें ले लिया।[2]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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