बृहन्नला के साथ उत्तरकुमार का रणभूमि को प्रस्थान

महाभारत विराट पर्व के गोहरण पर्व के अंतर्गत अध्याय 37 में बृहन्नला के साथ उत्तरकुमार का रणभूमि को प्रस्थान का वर्णन हुआ है[1]-

कुमारी उत्तरा के सौंदर्य का वर्णन

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! कुमारी उत्तरा सेने के माला और मोरपंचा का श्रृंगार धारण किये थी। उसका अंगकान्ति कमलदल की सी आभा वाली लक्ष्मी को भी लज्जित कर रही थी। उसकी कमर यज्ञ की वेदी के समान सूक्ष्म थी। शरीर से भी वह पतली ही थी। उसके सभी अंग शुभ लक्षणों से युक्त थे। उसने कटिप्रदेश में मणियों की बनी हुई विचित्र करधनी पहन रक्खी थी। मत्स्यराज की वह यशस्विनी कन्या अनुपम शोभा से प्रकाशित हो रही थी।। बड़ों की आज्ञा मानने वाली कुमारी उत्तरा बड़े भाई के भेजने से बड़ी उतावली के साथ नृत्यशाला में गयी; मानो चपला मेघमाला में विलीन हो गयी हो। उसके नेत्रों की टेढ़ी-टेढ़ी बरौनियाँ बड़ी भली मालूम होती थीं। उसकी परस्पर सटी हुई जाँघें हाथी की सूँड़ के समान सुशोभित होती थीं, दाँत चमकीले और मनोहर थे। शरीर का मध्यभाग बड़ा सुहावना था। वह अनिन्द्यसुन्दरी सुन्दर हार धारण किये उन कुन्तीनन्दन अर्जुन के पास पहुँचकर गजराज के समीप गयी हुई हथिनी के समान शोभा पा रही थी। विराटराजकुमारी उत्तरा स्त्रियों में रत्न स्वरूपा और मन को प्रिय लगने वाली थी। वह उस राजभावन में इन्द्र की साम्राज्यलक्ष्मी के समान सम्मानित थी। उसके नेत्र बड़े-बड़े थे। वह यशस्विनी बाला सामने से देखने ही योग्य थी।

अर्जुन एवं उत्तरा का संवाद

वह अर्जुन से प्रेम पूर्वक बोली- सुवर्ण के समान सुन्दर एवं गौर त्वचा तथा सटी जाँघों वाली कुमारी उत्तरा को देखकर अर्जुन ने पूछा- ‘सुवर्ण की माला धारण करने वाली मृगलोनि! आज तुम्हारा मुख प्रसन्न क्यों नहीं है? अंगने! मुझे शीघ्र सब बातें ठीक-ठीक बताओ’।

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! विशाल नेत्रों वाली अपनी सखी राजकुमारी उत्तरा की ओर देखकर अर्जुन ने हँसते हुए जब उससे अपने पास आने का कारण पूछा, तब वह राजपुत्री नरश्रेष्ठ अर्जुन के समीप जा अपना प्रेम प्रकट करती हुई सखियों के बीच में इस प्रकार बोली- ‘बृहन्नले! हमारे राष्ट्र की गौओं को कौरव हाँककर लिये जा रहे हैं। अतः उन्हें जीतने के लिये मेरे भैय्या धनुष धारण करके जाने वाले हैं। ‘थोड़े ही दिन हुए, उनके रथ का सारथि एक युद्ध में मारा गया। इस कारण कोई ऐसा योग्य सूत नहीं है, जो उनके सारथि का काम सँभाल सके। ‘बृहन्नले! वे सारथि ढूँढने का प्रयत्न कर रहे थे, इतने में ही सैरन्ध्री ने पहुँचकर यह बताया कि तुम अश्वविद्या में कुशल हो। ‘पहले तुम अर्जुन का प्रिय सारथि रह चुकी हो। तुम्हारी सहायता से उन पाण्डवशिरोमणि ने समूची पृथ्वी पर विजय पायी है। ‘अतः बृहन्नले! इसके पहले कि कौरव लोग हमारी गौओं को बहुत दूर लेकर जायँ, तुम मेरे भाई के सारथि का कार्य अच्छी तरह कर दो। ‘सखी! मैं बड़े प्रेम से यह बात कह रही हूँ। यदि आज इतना अनुरोध करने पर भी तुम मेरी बात नहीं मानोगी, तो मैं प्राण त्याग दूँगी’। सुन्दर कटिप्रदेया वाली उत्तरा के ऐसा कहने पर शत्रुओं को संताप देने वाले अर्जुन अमित पराक्रमी राजकुमार उत्तर के समीप गये। मद टपकाने वाले गजराज की भाँति याीघ्रतापूर्वक आते हुए अर्जुन के पीछे-पीछे विशाल नेत्रों वाली उत्तरा भी आयी; ठीक उसी तरह, जैसे हथिनी हाथी के पीछे-पीछे जाती है।

उत्तर एवं बृहन्नला का संवाद

राजकुमार उत्तर ने बृहन्नला को दूर से ही देखकर इस प्रकार कहा- ‘बृहन्नले! तुम अर्जुन की ही भाँति मेरे घोड़ों को भी काबू में रखना, क्योंकि मैं अपना गोधन वापस लाने के लिये कौरवों के साथ युद्ध करने वाला हूँ। ‘पहले तुम अर्जुन का प्रिय सारथि रह चुकी हो और तुम्हारी ही सहायता से उन पाण्डवयिारामणि ने समूची पृथ्वी पर विजय पायी है’।

उसके ऐसा कहने पर बृहन्नला राकुमार से बाली- ‘भला, मेरी क्या शक्ति है कि मैं युद्ध के मुहाने पर सारथि का काम सँभाल सकूँ ? ‘राजकुमार! आपका कल्याण हो। यदि गाना हो, नृत्य करना हो अथवा विभिन्न प्रकार के बाजे बजाने हों, तो वह कर लूँगी। सारथि क कान मुझसे कैसे हो सकता है ?’

उत्तर बोला- बृहन्नले तुम पुनः लौटकर गायक या नर्तक जो चाहो, बन जाना। इस समय तो शीघ्र ही मेरे रथ पर बैठकर श्रेष्ठ घोड़ों को काबू में करो।

बृहन्नला के साथ उत्तरकुमार का रणभूमि को प्रस्थान

वैशम्पायन कहते हैं- जनमेजय! शत्रुओं का दमन करने वाले पाण्डुनन्दन ने सब कुछ जानते हुए भी उत्तर के सामने हँसी के लिये बहुत अनभिज्ञतासूचक कार्य किया। बृहन्नला को (कवच धारण के समय) भूल करती देख राजकुमार उत्तर ने स्वयं ही उसे बहुमूल्य कवच धारण कराया। फिर उसने स्वयं भी सूर्य के समान कान्तिमान सुन्दर कवच धारण किया और रथ पर सिंहध्वज फहराकर बृहन्नला को सारथि के कार्य में नियुक्त कर दिया। तदन्न्तर बहुत से बहुमूल्य धनुष और सुन्दर बाण लेकर वीर उत्तर बुहन्नला सारथि के साथ युद्ध करने के लिये प्रस्थित हुआ। उस समय उत्तरा और उसकी सखी रूपा दूसरी राजकन्याओं ने कहा- ‘बृहन्नले! तुम युद्धभूमि में आये हुए भीष्म, द्रोण आदि प्रमुख कौरव वीरों को जीतकर हमारी गुडि़यों के लिये उनके महीन, कोमल और विचित्र रंग के वस्त्र ले आना’। ऐसा कहती हुई उप सब कन्याओं से पाण्डुनन्दन अर्जुन ने हँसते हुए मेघ और दुन्दुभि के समान गम्भीर वाणी में कहा।

बृहन्नला बोली- यदि ये राजकुमार उत्तर रणभूमि में उन महारथियों को परास्त कर देंगे, तो मैं अवश्य उनके दिव्य ओर सुन्दर वस्त्र ले आऊँगी।

वैशम्पायन कहते हैं- जनमेजय! ऐसा कहकर शूरवीर अर्जुन ने भाँति-भाँति की ध्वजा-पताकाओं से सुशोभित कौरवों की ओर जाने के लिये घोड़ों को हाँक दिया। बृहन्नला के साथ उत्तम रथ पद बैठे हुए महाबाहु उत्तर को जाते देख स्त्रियों, कन्याओं तथा उत्तम व्रत का पालन करने वाले ब्राह्मणों ने उसकी दक्षिणावर्त परिक्रमा की। तत्पश्चात् स्त्रियाँ और कन्याएँ बोली- ‘बृहनले! वृषभ के समान गति वाले अर्जुन को पहले खाण्डव वन दाह के समय जैसा मंगल प्राप्त हुआ था, आज युद्ध में कौरवों के पहुँचने पर राजकुमार उत्तर के साथ तुम्हें वैसा ही मंगल प्राप्त हो’।[2]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत विराट पर्व अध्याय 37 श्लोक 1-13
  2. महाभारत विराट पर्व अध्याय 37 श्लोक 14-34

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