कृपाचार्य और अर्जुन का युद्ध

महाभारत विराट पर्व के गोहरण पर्व के अंतर्गत अध्याय 57 में कृपाचार्य और अर्जुन के युद्ध का वर्णन हुआ है। यहाँ वैशम्पायन जी ने जनमेजय से कृपाचार्य और अर्जुन के युद्ध की कथा कही है।[1]

वैशम्पायन द्वारायुद्ध कृपाचार्य और अर्जुन के युद्ध का वर्णन

वैशम्पायन जी कहते हैं - जनमेजय! कौरव सेनाओं को व्यूह रचना करके खड़ी हुई देखकर कुन्ती नन्दन अर्जुन ने विराटकुमार उत्तर को सम्बोधित करके कहा- ‘उत्तर! जिसकी ध्वजा पर सोने की वेदी का चिह्न दिखायी देता है, उस रथ के दाहिने होकर चलो। उधर ही शरद्वान के पुत्र कृपाचार्य हैं’।

वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन! धनंजय की बात सुनकर विराट कुमार उत्तर ने तुरंत ही चाँदी के समान चमकीले उन श्वेत घाड़ों को; जो सोने के साज सामान से सुशोभित हो रहे थे, हाँका। घाड़ों को वेग पूर्वक भगाने के जितने उत्तम ढंग हैं, क्रमशः उन सबका सहारा लेकर उत्तर ने उन चन्द्रमा के समान श्वेत घोड़ों को इतनी तीव्र गति से आगे बढ़ाया, मानो वे कुपित होकर भाग रहे हों। अश्व विद्या में प्रवीण विराट पुत्र ने पहले कौरव सेना के समीप जाकर उन वायु के समान वेगशाली घोड़ों को पुनः लौटाया और दाँयी ओर से घुमाकर बाँयीं ओर बढ़ा दिया। अश्व संचालन का रहस्य जानने वाले मत्स्य देश के पुत्र ने रथ की चाल से कौरवों को मोह [2] में डाल दिया- वे यह न जान सके कि रथ किस महारथी के पास जाना चाहता है। विराट नन्दन महाबली उत्तर को किसी ओर से कोई भय नहीं था। उसने कृपाचार्य के रथ के समीप जा रथ द्वारा उनकी प्रदक्षिणा की। फिर उनके सामने जा वह रथ रोककर खड़ा हो गया। तब अर्जुन ने अपना नाम सुनाकर और पूरा बल लगाकर भारी आवाज करने वाले अपने उत्तम शंख देवदत्त को बजाया।

युद्ध भूमि में वैसे महापराक्रमी विजयशील अर्जुन के द्वारा बजाये जाने पर उस शंख से इतने जोर की आवाज हुई, मानो कोई पर्वत फट गया हो। उस समय समसत कौरव अपने सैनिकों के साथ यह कह कर उस शंख की सराहना करने लगे कि अहो! यह अद्भुत शंख है। जो अर्जुन के इस प्रकार बजाने पर भी उसके सैंकड़ों टुकड़े नहीं हो जाते। वह शंखनाद स्वर्गलोक से टकराकर जब पुनः लौटा, तब इस प्रकार सुनायी दिया, मानो इन्द्र का चलाया हुआ वज्र किसी पर्वत पर गिरा हो। वीरवर कृपाचार्य बल और पराक्रम से सम्पन्न थे। उन्हें जीतना अत्यन्त कठिन था। वे अर्जुन के शंख बजाने के अनन्तर उनके प्रति कुपित हो उठे। शरद्वान के पुत्र महारथी कृपाचार्य उस समय अर्जुन के शंखनाद को नहीं सह सके उनके मन में अर्जुन पर कुछ रोष हो आया; इसलिये युद्ध के (उनके साथ) अभिलाषी होकर उन महापराक्रमी महारथी ने अपना शंख लेकर उसे बड़े जोर से फूँका।[1]

रथियों में श्रेष्ठ कृपाचार्य ने उस शंखनाद से तीनों लोकों को गुँजाकर उस समय हाथ में धनुष ले लिया और उसकी प्रत्यन्चा खींचकर टंकार ध्वनि की। वे दोनों महारथी बड़े पराक्रमी और सूर्य के समान तेजस्वी थे; अतः युद्ध करने के लिये खड़े हुए वे दोनों वीर शरत्काल के दो मेघों की भाँति शोभा पाने लगे। तदनन्तर कृपाचार्य ने मर्मस्थान को विदीर्ण करने वाले दस तीखे बाणों द्वारा शत्रुवीरों के संहारक कुन्ती नन्दन अर्जुन को तुरंत बींध डाला। तब अर्जुन ने भी अपने विश्वविख्यात उत्तम आयुध गाण्डीव को[3] खींचकर बहुत से मर्मभेदी नाराच छोड़े। किंतु अर्जुन के द्वारा चलाये हुए उन रक्त पीने वाले नाराचों को अपने पास आने से पहले ही कृपाचार्य ने तीखे बाण मारकर उनके सैंकड़ों और हजारों टुकड़े कर डाले।

अर्जुन द्वारा कृपाचार्य का वध

तब सामर्य्थयशाली महारथी कुन्ती पुत्र अर्जुन ने क्रोध में भरकर बाण चलाने की विचित्र पद्धतियों का प्रदर्शन करते हुए बाणों की झड़ी लगाकर सम्पूर्ण दिशा विदिशाओं को ढँक दिया और आकाश को सब ओर से एक मात्र अन्धकार में निमग्न सा कर दिया। तदनन्तर अचिन्तय मन बुद्धि वाले पृथा पुत्र अर्जुन ने सैंकड़ों बाण मारकर कृपाचार्य को ढँक दिया। आग की लपटों के समान जलाने वाले उन तीखे बाणों से पीड़ित होने पर कृपाचार्य को बड़ा क्रोध हुआ। तब उन्होंने अनुपम पराक्रमी महात्मा पृथा पुत्र को युद्ध में तुरंत ही दस हजार बाणों से पीड़ित करके बड़े जोर से गर्जना की। तब वीर अर्जुन ने गाण्डीव धनुष से छूटे हुए झुकी हुई गाँठ वाले सुनहरे पर्वाग्र[4] वाले चार बाणों द्वारा बड़ी उतावली से कृपाचार्य के चारों घोड़ों को बींध डाला। वे चारों बाण बड़े तीखे और उत्तम थे। विषाग्नि से जलते हुए सर्पों की भाँति उन तेज बाणों की मार खाकर वे सभी घोड़े सहसा उछल पड़े।

इससे कृपाचार्य अपने स्थान से गिर गये। कृपाचार्य को स्थान से गिरा हुआ देख शत्रुवीरों का नाश करने वाले कुरुनन्दन अर्जुन ने उनके गौरव की रक्षा करते हुए उन पर बाणों से आघात नहीं किया। किंतु कृपाचार्य ने पुनः अपना सथान ग्रहण कर लेने पर तुरंत ही सफेद चील के पंखो से युक्त दस बाणों का प्रहार करके सव्यसाची अर्जुन को बींध डाला। तब अर्जुन ने एक तीखे भल्ल नामक बाण द्वारा कृपाचार्य का धनुष काट डाला और पुनः उनके दस्ताने को नष्ट कर दिया। उसके बाद पार्थ ने मर्म भेदी तीखे बाणों द्वारा उनके कवच को भी छिन्न भिन्न कर दिया, किंतु उनके शरीर को तनिक भी कष्ट नहीं पहुँचाया।[5]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत विराट पर्व अध्याय 57 श्लोक 1-13
  2. भ्रम
  3. कान तक
  4. फल
  5. महाभारत विराट पर्व अध्याय 57 श्लोक 14-28

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