- महाभारत विराट पर्व के कीचकवध पर्व के अंतर्गत अध्याय 23 में भीमसेन द्वारा उपकीचकों के वध का वर्णन हुआ है[1]-
विषय सूची
द्रौपदी का विलाप
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! जिन वेगवान गन्धर्वों के धनुषों की प्रत्यंचा का भीषण शब्द वज्राघात के समान सुनायी देता है तथा जिनके रथों की घर्घराहट की आवाज भी बड़े जोर से उठती और दूर तक फैलती है, वे मेरी मेरी यह आर्त वाणी सुनें और समझें। ये सूतपुत्र मुझे श्मशान में लिये जा रहे हैं।
वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन! द्रौपदी की वह दीन वाणी और करूण विलाप सुनते ही भीमसेन बिना कोई विचार किये शय्या से कूद पड़े।
भीमसेन का संवाद
भीमसेन बोले- सैरन्ध्री! तुम जो कुछ कह रही हो, तुमहारी वाणी मैं सुनता हूँ। इसीलिये भीरु! अब इन सूतपुत्रों से तेरे लिये कोई भय नहीं है।
वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन! ऐसा कहकर महाबाहु भीमसेन ने उपकीचकों को वध करने के लिये अँगड़ाई लेते हुए अपने शरीर को बढ़ा लिया और प्रयत्नपूर्वक वेष बदलकर बिना दरवाजे के ही दीवार फाँदकर पाकशाला से बाहर निकल गये। फिर वे नगर का परकाटा लाँघकर बड़े वेग से एक वृक्ष पर चढ़ गये।[2] तत्पश्चात वे उपकीचक जिधर गये थे, उसी ओर भीमसेन भी श्मशानभूमि की दिशा में चल दिये। चाहरदीवारी लाँघने के पश्चात उस श्रेष्ठ नगरी से निकलकर भीमसेन इतने वेग से चले कि सूतपुत्रों से पहले ही वहाँ पहुँच गये। राजन! चिता के समीप जाकर उन्होंने वहाँ ताड़ के बाराबर एक वृक्ष देखा, जिसकी शाखाएँ बहुत बड़ी थीं और जो ऊपर से सूख गया था। उस वृक्ष की ऊँचाई दस व्याम[3] थी।
भीमसेन द्वारा उपकीचकों का वध
उसे शत्रुतापन भीमसेन ने दोनों भुजाओं में भरकर हाथी के समान जोर लगाकर उखाड़ा और अपने कंधे पर रख लिया। शाखा-प्रशाखाओं सहित उस दस व्याम ऊँचे वृक्ष को लेकर बलवान भीम दण्डपति यमराज के समान उन सूतपुत्रों की ओर दौड़े। उस समय उनकी जंघाओं के वेग से टकराकर बहुतेरे बरगद, पीपल और ढाक के वृक्ष पृथ्वी पर गिरकर ढेर-के-ढेर बिखर गये। सिंह के समान क्रोण में भरे हुए गन्धर्वरूपी भीम को अपनी ओर आते देखकर सभी सुतपुत्र डर गये और विषाद एवं भय से काँपते हुए कहने लगे- ‘अरे! देखो, यह बलवान गन्धर्व वृक्ष उठाये कुपित हो हमारी ओर आ रहा है। सैरन्ध्री को शीघ्र छोड़ दो, क्योंकि उसी के कारण हमें यह भय उपस्थित हुआ है’। इतने में ही भीमसेन के द्वारा घुमाये जाते हुए उस वृक्ष को देखकर वे द्रौपदी को वहीं छोड़ नगर की ओर भागन लगे।। राजेन्द्र! उन्हें भागते देख वायुपुत्र बलवान भीम ने, वज्रधारी इन्द्र जैसे दानवों का वध करते हैं, उसी प्रकार उस वृक्षा से एक सौ पाँच उपकीचकों को यमराज के घर भेज दिया। महाराज्! तदनन्तर उन्होंने द्रौपदी को बन्धन से मुक्त करके आश्वासन दिया। उस समय पाञ्चालराजकुमारी द्रौपदी बड़ी दीन एवं दयनीय हो गयी थी। उसके मुख पर आँसुओं की धारा बह रही थी। दुर्धर्ष वीर महाबाहु वृकोदर ने उसे धीरज बँधाते हुए कहा- ‘भीरु! जो तुझ निरपराध अबला को समायेंगे, वे इसी तरह मारे जायँगे। कृष्णे! नगर को जाओ। अब तुम्हारे लिये कोई भय नहीं है। मैं दूसरे मार्ग से विराट की पाकशाला में चला जाऊँगा’।
वैशम्पायन जी कहते हैं- भारत! भीमसेन के द्वारा मारे गये वे एक सौ पाँच उपकीचक वहाँ श्मशानभूमि में इस प्रकार सो रहे थे, मानो काटा हुआ महान जंगल गिरे हुए पेड़ों से भरा हो। राजन! इस प्रकार वे एक सौ पाँच उपकीचक और पहले मरा हुआ सेनापित कीचक सब मिलकर एक सौ छः सूतपुत्र मारे गये। भारत! उस समय श्मशानभूमि मे बहुत से पुरुष और स्त्रियाँ एकत्र हो गयीं थी। उन सबने यह महान आश्चर्यजनक काण्ड देखा, किंतु भारी विस्मय में पड़कर किसी ने कुछ कहा नहीं।[4]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ महाभारत विराट पर्व अध्याय 23 श्लोक 1-16
- ↑ और वहीं से यह देखने लगे कि उपकीचक द्रौपदी को किधर ले जा रह हैं
- ↑ दोनों हथों को फैलाने पर जितनी लम्बाई होते है, उसे एक व्याम कहते हैं।
- ↑ महाभारत विराट पर्व अध्याय 23 श्लोक 17-34
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