कीचक की द्रौपदी पर आसक्ति और प्रणय निवेदन

महाभारत विराट पर्व के कीचकवध पर्व के अंतर्गत अध्याय 14 में कीचक की द्रौपदी पर आसक्ति और प्रणय निवेदन का वर्णन हुआ है[1]-

द्रौपदी द्वारा सुदेष्णा की सेवा

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! उस समय कुन्ती के उन महारथी पुत्रों को मत्स्यराज के नगर मे छिपकर रहते हुए धीरे-धीरे दस महीने बीत गये। राजन! यज्ञसेन-कुमारी द्रौपदी, जो स्वयं स्वामिनी की भाँति सेवा योग्य थी, रानी सुदेष्णा की शुश्रुषा करती हुई बड़े कष्ट से वहाँ रहती थी। सुदेष्णा के महल में पूर्वोक्तरूप से सेवा करती हुई पाञ्चाली ने महारानी तथा अनतःपुर की अन्य स्त्रियों को पूर्ण प्रसन्न कर लिया। जब वह वर्ष पूरा होने में कुछ ही समय बाकी रह गया, तब की बात है; एक दिन राजा विराट के सेनापति महाबली कीचक ने द्रुपदकुमारी को देखा।

कीचक का कामबाण से पीड़ित होना

राजमहल में देवांगना की भाँति विचरती हुई देवकन्या के समान कान्ति वाली द्रौपदी को देखकर कीचक कामबाण से अत्यन्त पीड़ित हो उसे चाहने लगा। कामवासना की आग में जलता हुआ सेनापति कीचक अपनी बहिन रानी सुदेष्णा के पास गया और हँसता हुआ सा उससे इस प्रकार बोला- ‘सुदेष्णे! यह सुन्दरी जो अपने रूप से मुझे अत्यन्त उन्मत्त सा किये देती है, पहले कभी राजा विराट के इस महल में मेरे द्वारा नहीं देखी गयी थी। यह भामिनी अपनी दिव्य गंध से मेरे लिये मदिरा सी मादक हो रही है। ‘शुभे! यह कौन है, इसका रूप देवांगना के समान है। यह मेरे हृदय में समा गयी है। शोभने! मुझे बताओ, यह किसकी स्त्री है और कहाँ से आयी है? यह मेरे मन को मथकर मुझे वश में किये लेती है। मेरे इस रोग की औषधि इसकी प्राप्ति के सिवा दूसरी कोई नहीं जान पड़ती। ‘अहो! बड़े आश्चर्य की बात है कि यह सुन्दरी तुम्हारे यहाँ दासी का काम कर रही है। मुझे ऐसा लगता है, इसका रूप नित्य नवीन है। तुम्हारे यहाँ जो काम करती है, वह इसके योग्य कदापि नहीं है। मैं चाहता हूँ, यह मेरी गुहस्वामिनी होकर मुझ पर और मेरा पास जो कुछ है, उस पर भी एकछत्र शासन करे। ‘मेरे घर में बहुत से हाथी, घोड़े और रथ हैं, बहुत से सेवा करने वाले परिजन हैं तथा उसमें प्रचुर सम्पत्ति भरी है। भोजन और पेय की उसमें अधिकता है। देखने में भी वह मनोहर है। सुवर्णमय चित्र उसकी शोभा बढ़ा रहे हैं। मेरे उस विशाल भवन में चलकर यह सुन्दरी उसे सुशोभित करे’। तदनन्तर रानी सुदेष्णा की सम्मति ले कीचक राजकुमारी द्रौपदी के पास आकर उसे सान्त्वना देता हुआ बोला; मानो वन में कोई सियार किसी सिंह की कन्या को फुसला रहा हो।

कीचक की द्रौपदी पर आसक्ति और प्रणय निवेदन

(उसने द्रौपदी से पूछा) कल्याणि! तुम कौन हो और किसकी कन्या हो? अथवा सुमुखि! तुम कहाँ से इस विराट नगर में आयी हो? शोभने! ये सब बातें मुझे सच-सच बताओ।। ‘तुम्हारा यह श्रेष्ठ और सुन्दर रूप, यह दिव्य कान्ति और यह सुकुमारता संसार में सबसे उत्तम है और तुम्हारा निर्मल मुख तो अपनी छवि से निष्कलंक चन्द्रमा की भाँति शोभा पा रहा है। ‘सुन्दर भौहों वाली सर्वांगसुन्दरी! तुम्हारे ये उत्तम और विशाल नेत्र कमलदल के समान सुशोभित हैं। तुम्हारी वाणी क्या है; कोकिल की कूक है। ‘सुश्रोणि! अनिन्दिते! जैसी तुम हो, ऐसे मनोहर रूप वाली होई दूसरी स्त्री इस पृथ्वी पर मैंने आज से पहले कभी नहीं देखी थी। ‘सुमध्यमे! तुम कमलों में निवास करने वाली लक्ष्मी हो अथवा साकार विभूति? सुमुखि! लज्जा, श्री, कीर्ति और कान्ति- इन देवियों में से तुम कौन हो? ‘क्या तुम कामदेव के अंगों से क्रीड़ा करने वाली अतिशय रूपवती रति हो? सुभ्रु! तुम चन्द्रमा की परम उत्तम प्रभा के समान अत्यन्त उद्भासित हो रही हो। ‘तुम्हारा सुन्दर मुखचन्द्र अनुपम लक्ष्मी से अलुकृत है, तुम्हारे नेत्रों की अधखंली पलकें चाँदनी के समान मन को आह्लादित करने वाली है। दिव्य रश्मियों से आवृत तुम्हारा यह मुखचन्द्र दिव्य छवि के द्वारा मन को रमा लेने वाला है। इसे देखकर सम्पूर्ण जगत में कौन ऐसा पुरुष है, जो काम के अधीन न हो जाय ? ‘तुम्हारे दोनों स्तन हार आदि आभूषणों के योग्य और परम सुन्दर हैं। वे ऊँचे, श्रीसम्पन्न, स्थूल, गोल-गोल और परस्पर सटे हुए हैं। ‘सुन्दर भौंहों तथा मनोरम मुस्कान वाली सुन्दरी! कमलकोश के समान आकार वाले तुम्हारे दोनों उरोज कामदेव के चाबुक की भाँति मुझे पीड़ा दे रह हैं। ‘तनुमध्यमे! तुम्हारी कमर इतनी पतली है कि हाथों के अग्रभाग से[2] माप ली जा सकती है। वह त्रिवलीकी तीन रेखाओं से परम सुन्दर दीखती है। तुम्हारे स्तनों के भार ने उसे कुछ झुका दिया है। ‘भामिनी! नदी के दो किनारों के समान तुम्हारे मनोहर जघन को देख लेने से ही कामरूपी असाध्य रोग मुझ जैसे वीर पर भी आक्रमण कर रहा है। ‘निर्दयी कामदेव अग्निस्वरूप होकर दावानल की भाँति मेरे हृदयरूपी वन में जल उठा है। तुम्हारे समागम का संकल्प इसमें घी का काम करता है। इससे अत्यन्त प्रज्वलित होकर यह काम मुझे जला रहा है। ‘वरारोहे! तुम अपने संगमरूपी मेघ से आत्मसमर्पणरूपी वर्षा द्वारा इस प्रज्वलित मदनाग्नि को बुझा दो। ‘चन्द्रमुखी! मेरे मन को उन्मत्त बना देने वाले कामदेव के बाण-समूह तुम्हारे समागम आशारूपी शान पर चढ़कर अत्यन्त तीखे और तीव्र हो गये हैं कजरारे नयनप्रान्तों वाली सुन्दरी! अत्यन्त क्रोधपूर्वक चलाये हुए काम के वे प्रचण्ड एवं भयचंकर बाण दयाशून्य हो वेग से आकर मेरे इस हृदय को विदीर्ण करके भीतर घुस गये हैं और अतिशय उन्माद (सन्निपात जनित बेहोशी) पैदा कर रहे हैं।

वे मेरे लिये प्रेमोन्मादजनक हो रहे हें। अब तुम्हीं आत्मदानजनित सम्भोगरूप औषध के द्वारा यहाँ मेरा उद्धार कर सकती हो। ‘विलासिते! विचित्र माला और सुन्दर वस्त्र धारण करके समस्त आभूषणों से विभूषित हो मेरे साथ अतिशय कामभोग का सेवन करो। ‘यहाँ अनेक प्रकार के वस्त्र हैं। अतः तुम ऐसे स्थान में निवास करने योग्य नहीं हो। तुम सुख भोगने के योग्य हो, किंतु यहाँ सुख से वंचित हो। मस्तीभरी चाल से चलने वाली सैरन्ध्री! तुम मुझ से सर्वोत्तम सुखभोग प्राप्त करो। ‘अमृत के समान स्वादिष्ट और मनोहर भाँति-भाँति के पेय रसों का पान करती हुई तुम्हें जैसे सुख मिले, उसी प्रकार रमण करो। ‘महाभागे! नाना प्रकार की भो-सामग्री तथा सर्वोत्तम सौभाग्य पाकर उत्तमोत्तम शुभ भोगों के साथ पीने योग्यश रसों का आस्वादन करो। उनधे! तुम्हारा यह सर्वोत्कृष्ट रूप सौन्दर्य आज की परिस्थितियों में केवल व्यर्थ जा रहा है। भामिनी! जैसे उत्तम हार को यदि किसी ने गले में धारण नहीं किया, तो उसकी शोभा नहीं होती, उसी प्रकार सुन्दरि! तुम शुभस्वरूपा और शोभामयी होकर भी किसी के गले का हार न बन सकने के कारण सुशोभित नहीं होती हो।[3]चारुहासिनी! यदि तुम चाहो तो मैं पहली स्त्रियों को त्याग दूँगा अथवा वे सब तुम्हारी दासी बनकर रहेंगी। सुन्दरि! सुमुखि! मैं स्वयं भी दासी की भाँति सदा तुम्हारे अधीन रहूँगा’।

द्रौपदी द्वारा कीचक को समझाना

द्रौपदी ने कहा- सूतपुत्र! तुम मुझे चाहते हो। छिः छिः; मुझसे इस तरह की याचना करना तुम्हारे लिये कदापि योग्य नहीं है। एक तो मेरी जाति छोटी है, दूसरे मैं सैरन्ध्री (दासी) हूँ, वीभत्स वेषवाली स्त्री हूँ तथा केश सँवारने का काम करने वाली एक तुच्छ सेविका हूँ। बुद्धिमान पुरुष अपनी पत्नी को ही अनुकूल बनाये रखने के लिये उत्तम यत्न करता है। अपनी स्त्री में अनुराग रखने वाला मनुष्य शीघ्र ही कल्याण का भागी होता है।। मनुष्य को चाहिये कि वह पाप में लिप्त न हो, अपयश का पात्र न बने, अपनी ही पत्नी के प्रति अनुराग रखना परम धर्म है। वह मृत पुरुष के लिये भी कल्याणकारी होता है, इसमें संशय नहीं है।। अपनी जाति की स्त्रियाँ मनुष्य के लिये इहलोक और परलोक में भी हितकारिणी होती हैं। वे प्रेतकार्य (अन्त्येष्टि-संस्कार) करती और जलांजलि देकर मृतात्मा को तृप्त करती हैं। उनके इस कार्य को मनीषी पुरुषों ने अक्षय, धर्मसंगत एवं स्वर्ग की प्राप्ति कराने वाला बताया है। अपनी जाति की स्त्री से उत्पन्न हुए पुरुष कुल में सम्मानित होते हैं। सभी प्राण्धियों को अपनी ही पत्नी प्यारी होती है। इसलिये तुम भी ऐसा करके धर्म के भागी बनो। परस्त्री लम्पट पुरुष कभी कल्याण नहीं देखता। सबसे बड़ी बात यह है कि मैं दूसरे की पत्नी हूँ। तुम्हारा कल्याण हो। इस समय मुझसे इस तरह की बातें करना तुम्हारे लिये किसी तरह उचित नहीं हे। जगत के सब प्राणियों के लिये अपनी ही स्त्री प्रिय होती है। तुम धर्म का विचार करो। परायी स्त्री में तुम्हें कभी किसी तरह भी मन नहीं लगाना चाहिये। न करने योग्य अनुचित कर्मों को सर्वथा त्याग दिया जाय, यही श्रेष्ठ पुरुषों का व्रत है। झूठे विषयों में आसक्त होने वाला पापात्मा मनुष्य मोह में पड़कर भयंकर अपयश पाता है अथवा उसे बड़े भारी भय (मृत्यु) का सामना करना पड़ता है।

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! सैरन्ध्री के इस प्रकार समझाने पर भी कीचक को होश न हुआ। वह काम से मोहित हो रहा था। यद्यपि उस दुर्बुद्धि को यह मालूम था कि परायी स्त्री के स्पर्श से बहुत से ऐसे दोष प्रकट हो जाते हैं, जिसकी सब लोग निन्दा करते हैं तथा जिनके कारण प्राणों से भी हाथ धोना पड़ता है।

कीचक का संवाद

तो भी उस अजितेनिदंय तथा अतयन्त दुर्बुद्धि ने द्रौपदी से इस प्रकार कहा- ‘वरारोहे! सुमुखि! तुम्हें इस प्रकार मेरी प्रार्थना नहीं ठुकरानी चाहिये! चारुहासिनी! मैं तुम्हारे लिये कामवेदना से पीड़ित हूँ। ‘भीरु! मैं तुम्हारे वश में हूँ और प्रिय वचन बोलता हूँ। कजरारे नयनों वाली सैरन्ध्री! मुझे ठुकराकर तुम निश्चय ही पश्चाताप करोगी। ‘सुभ्रू! सुमध्यमे! मैं इस सम्पूर्ण राज्य का स्वामी इसे बसाने वाला हूँ। बल और पराक्रम में इस पृथ्वी पर मेरी समानता करने वाला कोई नहीं है।‘रूप, यौवन, सौभाग्य और सर्वोत्तम शुभ भोगों की दृष्टि से इस भूतल पर मेरी समानता करने वाला इूसरा कोई पुरुष नहीं है।[4]‘कल्याणि! जब सम्पूर्ण मनोरथों से सम्पन्न अनुपम भोग यहाँ भोगने के लिये तुम्हें सुलभ हो रहे हैं, तब तुम दासीपन में क्यों आसक्त हो ? ‘शुभानने! मैंने यह सम्पूर्ण राज्य तुम्हें अर्पित कर दिया। अब तुम्ही इसाकी स्वामिनी हो। वरारोहे! मुझे अपना लो और मेरे साथ उत्तमोत्तम भोगों का भोग करो’।[5]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत विराट पर्व अध्याय 14 श्लोक 1-15
  2. अंगूठे से लेकर तर्जनी तक के बित्ते से
  3. महाभारत विराट पर्व अध्याय 14 श्लोक 16-32
  4. महाभारत विराट पर्व अध्याय 14 श्लोक 33-43
  5. महाभारत विराट पर्व अध्याय 14 श्लोक 44-50

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