- महाभारत विराट पर्व के गोहरण पर्व के अंतर्गत अध्याय 71 में विराट का युधिष्ठिर को राज्य समर्पण और अर्जुन-उत्तरा विवाह के प्रस्ताव का वर्णन हुआ है[1]-
विषय सूची
विराट एवं उत्तर का संआद
वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन! उत्तर की यह बात सुनकर प्रतापी मत्स्य नरेश, जो युधिष्ठिर के अपराधी थे, अपने पुत्र से इस प्रकार बोले- ‘बेटा! यह पाण्डवों को प्रसन्न करने का समय आया है। मेरी ऐसी ही रुचि है। यदि तुम्हारी राय हो, तो मैं कुमारी उत्तरा का विवाह कुन्ती के पुत्र अर्जुन से कर दूँ’।
उत्तर ने कहा- पिता जी! पाण्डव लोग महान सौभाग्यशाली हैं। ये सर्वथा श्रेष्ठ, पूजनीय और सम्मान के योग्य हैं। मेरी समझ में इनके सत्कार का हमें अवसर भी मिल गया है, अतः इन पूजने योग्य पाण्डवों का आप अवश्य पूजन करें।
विराट बोले- बेटा! मैं भी त्रिगर्तों के साथ होने वाले संग्राम मे शत्रुओं के वशीभूत हो गया था, किंतु भीमसेन ने मुझे छुड़ाया और हमारी सब गौओं को भी जीता। इन पाण्डवों के ही बाहुबल से संग्राम में हमारी विजय हुई है; इसलिये वत्य! तुम्हारा भला हो। हम सब लोग मन्त्रियों सहित चलकर पाण्डव श्रेष्ठ कुन्ती पुत्र युधिष्ठिर को उनके छोटे भाइयों सहित प्रसन्न करें। हमने अनजान में उनके प्रति जो कुछ अनुचित वचन कह दिया है, वह सब ये धर्मात्मा पाण्डुपुत्र महाराज युधिष्ठिर क्षमा करें।
विराट का युधिष्ठिर को राज्य समर्पण
वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन! तदनन्तर राजा विराट ने बड़ी प्रसन्नता के साथ अपने पुत्र से मिलकर कुछ विचार किया, फिर उन महामना ने दण्ड, कोश और नगर आदि सहित सम्पूर्ण राज्य युधिष्ठिर को समर्पित कर दिया। फिर प्रतापी मत्स्यराज अर्जुन को आगे रखकर सब पाण्डवों से मिले और यह कहने लगे कि हमारा बड़ा सौभाग्य है; जो आप लोगों का दर्शन हुआ। फिर उन्होंने युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन तथा नकुल सहदेव का बार बार मस्तक सूँघा और सबको हृदय से लगाया। सेनाओं के स्वामी राजा विराट पाण्डवों को देख देखकर तृप्त नहीं होते थे। वे प्रेम पूर्वक राजा युधिष्ठिर से इ स प्रकार बोले- ‘बड़े सौभाग्य की बात है, जो आप सब लोग वन से कुशल पूर्वक लौट आये। दुरात्मा कौरवों से अज्ञात रहकर आपने यह कष्ट साध्य अज्ञातवास का नियम पूरा कर लिया, यह भी बड़े आनन्द की बात है। ‘मेरा यह राज्य कुन्ती पुत्र को समर्पित है। इसके सिवा और भी जो कुछ मेरे पास है, वह सब पाण्डव लोग बिना किसी संकोच के ग्रहण करें।
अर्जुन-उत्तरा विवाह का प्रस्ताव
‘सव्यसाची धनंजय मेरी कन्या उत्तरा को पत्नी रूप में स्वीकार करें। ये नरश्रेष्ठ उसके लिये सर्वथा योग्य पति हैं’। राजा विराट के ऐसा कहने पर धर्मराज युधिष्ठिर ने कुंती नन्दन अर्जुन की ओर देखा। भाई के देखने पर अर्जुन ने मत्स्य राज से इस प्रकार कहा- ‘राजन्! मैं आपकी पुत्री को अपनी पुत्र वधू के रूप में स्वीकार करता हूँ। मत्स्य और भरतवंश का यह सम्बन्ध सर्वथा उचित है’।[2]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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