द्रौपदी का भीमसेन के सम्मुख विलाप

महाभारत विराट पर्व के कीचकवध पर्व के अंतर्गत अध्याय 19 में द्रौपदी द्वारा भीमसेन के सम्मुख विलाप करने का वर्णन हुआ है[1]-

द्रौपदी की व्यथा

द्रौपदी बोली- भारत! अब जो दुःख मैं तुम से निवेदन करने वाली हूँ, वह तो मेरे लिये और भी महान है। तुम इसके लिये मुझे दोष न देना। मैं दुःख से व्यथित होने के कारण ही यह सब कह रही हूँ।

भीमसेन की दुर्दशा का वर्णन

भरतर्षभ! जो तुम्हारे लिये सर्वथा अयोग्य है, ऐसे रसोइये के नीच काम में लगे हो और अपने को ‘बल्लव’ जाति का मनुष्य बताते हो। इस अवस्था में तुम्हें देखकर किसका शोक न बढ़ेगा? लोग तुम्हें राजा विराट के रसोइये बल्लव के नाम से जानते हैं। तुम स्वामी होकर भी आज सेवक की दशा में पड़े हो। इससे बढ़कर महान कष्ट मेरे लिये और क्या हो सकता है? जब पाकशाला में भोजन बना लने पर तुम विराट की सेवा में उपस्थित होते हो और कहते हो- ‘महाराज! बल्लव रसोइया आपको भोजन के लिये बुलाने आया है’, तब यह सुनकर मेरा मन दुःखित हो जाता है। जब विराटनरेश प्रसन्न होकर तुम्हें हाथियों से लड़ाते हैं, उस समय रनिवास की दूसरी स्त्रियाँ तो हँसती हैं और मेरा हृदय शोक से व्याकुल हो उठता है। जब रानी सुदेष्णा दर्शक बनकर बैठती हैं और तुम महल के आँगन में व्याघ्रों, सिंहों तथा भैसों से लड़ते हो, उस समय मुझे बड़ी व्यथा होती है। एक दिन उक्त पशुओं से तुम्हारा युद्ध देखकर उठने के बाद मुझ निर्दोष अंगों वाली अबला को इसी कारण शोक-पीड़ित सा देख केकयराजकुमारी सुदेष्णा अपने साथ आयी हुई सम्पूर्ण दासियों से और वे खड़ी हुई दासियाँ रानी कैकेयी से इस प्रकार कहने लगीं- ‘यह पवित्र मुस्कान वाली सैरन्ध्री पहले (युधिष्ठिर के यहाँ) एक स्थान में साथ-साथ रहने के कारण पैदा होने वाले स्नेह से अथवा धर्म से प्रेरित होकर उस महापराक्रमी रसोइये को पशुओं से लड़ते देख उसके लिये बार-बार शोक करने लगती है। सैरन्ध्री रूप तो मंगलमय है ही, बल्लव भी बड़ा सुन्दर है।

‘स्त्रियों के हृदय को समझ लेना बहुत कठिन है, हमें तो यह जोड़ी अच्छी जान पड़ती है। सैरन्ध्री अपने प्रिय सम्बन्ध के कारण जब रसोइये को हाथी आदि से लड़ाने की बात की जाती है, तब (अत्यन्त दीन से होकर) सदा करुणायुक्त वचन बालने लगती है। ‘क्यों न हो, इस राज परिवार में भी तो ये दोनों एक ही समय से निवास करते हैं?’ इस तरह की बातें कहकर रानी सुदेष्णा प्रायः नित्य मुझे झिड़का करती हैं। और मुझे क्रोध करती देख तुम्हारे प्रति मेरे गुप्त प्रेम की आशंका कर बैठती हैं। जब-जब वे वैसी बातें कहती हैं, उस समय मुझे बहुत दुःख होता है। भीम! भयंकर पराक्रम दिखाने वाले होकर भी तुम ऐसे नरकतुल्य कष्ट भोग रहे हो और उधर महाराज युधिष्ठिर को भी भारी शोक सहन करना पड़ता है। इस प्रकार मैं दुःख के समुद्र में डूबी हुई हूँ। अब मुझे जीवित रहने का तनिक भी उत्साह नहीं है।

अर्जुन की दुर्दशा का वर्णन

वह तरुण वीर अर्जुन, जो अकेले ही रथ में बैठकर सम्पूर्ण मनुष्यों तथा देवताओं पर भी विजय पा चुका है, आज राजा विराट की कन्याओं को नाचना सिखाता है। कुन्तीनन्दन! जो असीम आत्मबल से सम्पन्न है, जिसने खाण्डववन में साक्षात अग्निदेव को तृप्त किया था, वही वीर अर्जुन आज कुएँ में पड़ी हुई अग्नि की तरह अन्तःपुर में दिपा हुआ है। जो पुरुषों में श्रेष्ठ है, जिससे शत्रुओं को सदा ही भय प्राप्त होता आया है, वही धनंजय आज लोकनिन्दित नपुंसक वेष में रह रहे हैं। जिसकी परिघ (लोदण्ड) के समान मोटी भुजाएँ प्रत्यन्चा खींचते-खींचते कठोर हो गयी थीं, वही धनंजय आज हाथों में चूडि़याँ पहनकर दुःख भोग रहा है। जिसके धनुष की टंकार से समस्त शत्रु थर्रा उठते थे, आज अन्तःपुर की स्त्रियाँ उसी के गीतों की ध्वनि सुनती और प्रसन्न होती हैं। जिसके मस्तक पर सूर्य के समान तेजस्वी किरीट शोभा पाता था, सिर पर चोटी धारण करने के कारण उसी अर्जुन के केशों की शोभा बिगड़ गयी है। भीम! भयंकर गाण्डीव धनुष धारण करने वाले वीर अर्जुन को अपने सिर पर केशों की चोटी धारण किये कन्याओं से घिरा देख मेरा हृदय विषाद से भर जाता है। जिस महात्मा में सम्पूर्ण दिव्यास्त्र प्रतिष्ठित हैं तथा जो समस्त विद्याओं का आधार है, वह आज कानों में (स्त्रियों की भाँति) कुण्डल धारण करता है। जैसे महासागर तट सीमा को नहीं लाँघ पाता, उसी प्रकार सहस्रों अप्रतिम तेज वाले राजा जिस वीर को वशीभूत करने के लिये आगे न बढ़ सके, वही तरुण अर्जुन इस समय राजा विराट की कन्याओं को नाचना सिखा रहा है और हीजड़े के वेष में छिपकर न कन्याओं की सेवा करता है। भीमसेन! जिसे रथ की घर्घराहट से पर्वत, वन और चराचर प्राणियों सहित सम्पूर्ण पृथ्वी काँप उठती थी, जिस महान् भाग्यशाली पुत्र के उत्पन्न होने पर माता कुन्ती का सारा शोक नष्ट हो गया था, वही तुम्हारा छोटा भाई अर्जुन आज अपनी दुरवस्था के कारण मुझे शोकमग्न किये देता है। अर्जुन को स्त्रीजनोचित आभूषणों तथा सुवर्णमय कुण्डलों से विभूषित हो हाथों में शंख की चूडि़याँ धारण किये आते देख मेरा हृदय दुःखित हो जाता है। इस भूतल पर जिसके बल-पराक्रम की समानता करने वाला कोई धनुर्धर वीर नहीं है, वही धनंजय आज राजकन्याओं के बीच बैठकर गीत गाया करता है। धर्म, शूरवीरता और सत्यभाषण में जो सम्पूर्ण जीव-जगत के लिये एक आदर्श था, उसी अर्जुन को अब स्त्रिवेष में विकृत हुआ देखकर मेरा हृदय शोक में डूब जाता है। हथिनियों से घिरे हुए गण्डस्थल से मधु की धारा बहाने वाले गजराज की भाँति जब वाद्ययन्त्रों के बीच में बैठे हुए देवरूपधारी कुन्तीनन्दन अर्जुन को (नृत्यशाला में) कन्याओं से घिरकर धनपति मत्स्यराज विराट की सेवा में उपस्थित देखती हूँ, उस समय मेरी आँखों में अँधेरा छा जाता है; मुझे दिशाएँ नहीं सूझती हैं। निश्चय ही मेरी सास कुन्ती नहीं जानती होंगी कि मेरा पुत्र धनंजय ऐसे संकट में पड़ा है और खोटे जूए के खेल में आसक्त कुरुवंशशिरोमणि अजातशत्रु युधिष्ठिर भी शोक में डूबे हुए हैं।[2] जिन कुन्तीनन्दन अर्जुन ने ऐन्द्र, वरुण, वायव्य, ब्राह्म, आग्नेय और वैष्णव अस्त्रों द्वारा अग्निदेव को तृप्त करते हुए एकमात्र रथ की सहायता से सब देवताओं को जीत लिया, जिनका आत्मबल अचिन्त्य है, जो अपने दिव्ययस्त्रों द्वारा समस्त शत्रुओं का नाश करने में समर्थ हें, जिन्होंने एकमात्र रथ पर आरूढ़ हो दिव्य गान्धर्व, वायवय, वैरूणव, पाशुपात तथा स्थूणाकर्ण नामक अस्त्रों का प्रदर्शन करते हुए युद्ध में निवातकवचों सहित भयंकर पौलोम और कालकेय आदि महान असुरों को, जो इन्द्र से शत्रुता रचाने वाले थे, परास्त कर दिया था, वे ही अर्जुन आज अन्तःपुर में उसी प्रकार छिपे बैठे हैं, जैसे प्रज्वलित अग्नि कुएँ में ढक दी गयी हो। जैसे बड़ा भारी साँड़ गोशालाओं में आबद्ध हो, उसी प्रकार स्त्रियों के वेष से विकृत अर्जुन को कन्याओं के अन्तःपुर में देखकर मेरा मन बार-बार कुन्तीदेवी की याद करता है।

सहदेव की दुर्दशा का वर्णन

भारत! इसी प्रकार तुम्हारे छोटे भाई सहदेव को, जो गौओ का पालक बनाया गया है, जब गौओं के बीच ग्वाले के वेष में आते देखती हूँ, तो मेरा रक्त सूख जाता है और सारा शरीर ढीला पड़ जाता है। भीमसेन! सहदेव की दुर्दशा का बार-बार चिन्तन करने के कारण मुझे कभी नींद तक नहीं आती; फिर सुख कहाँ से मिल सकता है? महाबाहो! जहाँ तक मैं जानती हूँ, सहदेव ने कभी कोई पाप नहीं किया है, जिससे इस सत्यपराक्रमी वीर को ऐसा दुःख उठाना पड़े। भरतश्रेष्ठ! साँड़ के समान हृष्ट-पुष्ट तुम्हारे प्रिय भ्राता सहदेव को राजा विराट के द्वारा गौओं की सेवा में लगाया गया देख मुझे बड़ा दुःख होता है। गेरू आदि से लाल रंग का श्रृंगार धारण किये ग्वालों के अंगुआ बने हुए सहदेव को उद्विग्न होने पर भी जब में राजा विराट का अभिनन्दन करते देखती हूँ, तब मुझे बुखार चढ़ आता है। वीर! आर्या कुन्ती मुझसे सहदेव की सदा प्रशंसा किया करती थीं कि यह महान कुल में उत्पन्न, शीलवान और सदाचारी है। मुझे स्मरण है, जब सहदेव महान वन में आने लगे, उस समय पुत्रवत्सला माता कुन्ती उन्हें हृदय से लगाकर खड़ी हो गयीं और रोती हुई मुझसे यों कहने लगीं- ‘याज्ञसेनी! सहदेव बड़ा लज्जाशील, मधुरभाषी और धार्मिक है। यह मुझे अत्यनत प्रिय है। इसे वन में रात्रि के समय तुम स्वयं सँभालकर (हाथ पकड़कर) ले जाना, क्योकि यह सुकुमार है।[3] मेरा सहदेव शुरवीर, राजा युधिष्ठिर का भक्त, अपने बड़े भाई का पुजारी और वीर है। पाञ्चालराजकुमारी! तुम इसे अपने हाथों भोजन कराना। पाण्डुनन्दन! योद्धाओं में श्रेष्ठ उसी सहदेव कसे जब मै गौओं की सेवा में तत्पर और बछड़ों के चमड़े पर रात में सोते देखती हूँ, तब किसलिये जीवन धारण करूँ ? इसी प्रकार जो सुन्दर रूप, अस्त्रबल और मेधाशक्ति- इन तीनों से सदा सम्पन्न रहता है।

नकुल की दुर्दशा का वर्णन

वह वीरवर नकुल आज विराट के यहाँ घोड़े बाँधता है। देखो, काल की कैसी विपरीत गति है? जिसे देखकर शत्रुओं के समुदाय बिखर जाते - भाग खड़े होते हैं, वही अब ग्रन्थित बनकर घोड़ों की रास खोलता और बाँधता है तथा तहाराज के सामने अश्वों को वेग से चलने की शिक्षा देता है।[4] मैंने शोभासम्पन्न, तेजस्वी तथा उत्तम रूप वाले नकुल को अपनी आँखों देखा है। वह मत्स्यनरेश विराट को भाँति-भाँति के घोड़े दिखाता और उनकी सेवा में खड़ा रहता है। कुनतीनन्दन! शत्रुदमन! क्या तुम समझते हो, यह सब देखकर मैं सुखी हूँ ? राजा युधिष्ठिर के कारण ऐसे सैकड़ों दुःख मुझे सदा घेरे रहते हैं। भारत! कुन्तीकुमार! इनमें भी भारी दूसरे दुःख मुझ पर आ पड़े हैं, उनका भी वर्णन करती हूँ, सुनो। तुम सबके जीते-जी नाना प्रकार के कष्ट मेरे शरीर को सुखा रहे हैं, इससे बढ़कर दुःख और क्या हो सकता है ?[5]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत विराट पर्व अध्याय 19 श्लोक 1-14
  2. महाभारत विराट पर्व अध्याय 19 श्लोक 15-31
  3. सम्भव है, थकावट के कारण चल न सके
  4. महाभारत विराट पर्व अध्याय 19 श्लोक 32-43
  5. महाभारत विराट पर्व अध्याय 19 श्लोक 44-47

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पांडवप्रवेश पर्व
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गोहरण पर्व
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