- महाभारत विराट पर्व के गोहरण पर्व के अंतर्गत अध्याय 68 में विराट द्वारा उत्तरकुमार से युद्ध के समाचार पूछने का वर्णन हुआ है[1]-
विषय सूची
उत्तर का नगर में प्रवेश
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! इसी समय राजकुमार उत्तर बड़े हर्ष के साथ स्वच्छन्दता पूर्वक नगर में आये। मार्ग में उनके ऊपर उत्तम गन्ध और भाँति-भाँति के पुष्पहार बरसाये जा रहे थे। मत्स्य देश के लोगों, पुर वासियों तथा सुन्दरी स्त्रियों ने उनका स्वागत किया; फिर राजभवन के द्वार पर पहुँचकर उन्होंने पिता को अपने आगमन की सूचना करवायी। तब द्वारपाल ने भीतर जाकर महाराज विराट से कहा- ‘प्रभो! बृहन्नला के साथ राजकुमार उत्तर द्वार पर खड़े हैं’। इस समाचार से प्रसन्न होकर मत्स्यराज अपने सेवक से बोले- ‘मैं उन दोनों से मिलना चाहता हूँ; अतः उन्हें शीघ्र भीतर ले आओ’।
तब जाते हुए सेवक के कान में युधिष्ठिर ने धीरे से कह - ‘पहले अकेले राजकुमार उत्तर ही यहाँ आयें। बुहननला को साथ में न ले आना’। ‘महाबाहो! बृहन्नला का यह निश्चित व्रत है कि जो युद्ध भूमि के सिवा अन्य किसी स्थान में मेरे शरीर में घाव कर दे या रक्त बहता दिखा दे, वह किसी प्रकार जीवित न रहने पाये। ‘मेरे शरीर में रक्त देखकर वह अत्यन्त कुपित हो उठेगा और इस अपराध को क्षमा नहीं करेगा एवं राजा विराट को मन्त्री, सेना और वाहनों सहित यहीं मार डालेगा’।
उत्तर एवं विराट का संवाद
वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्तर राजा विराट के ज्येष्ठ पुत्र कुमार भूमिंजय ( उत्तर ) ने भीतर प्रवेश किया और पिता के दोनों चरणों में प्रणाम करके कंक को भी मस्तक झुकाया। उसने देखा, कंक एकान्त में भूमि पर बैठे हैं। सैरन्ध्री उनकी सेवा में उपस्थित है। उनका मन एकाग्र नहीं है और वे निरपराध हैं, तो भी उनके शरीर से रक्त बह रहा है। तब उत्तर ने बड़ी उतावली के साथ अपने पिता से पूछा- ‘राजन्! किसने इन्हें मारा है? किसने यह पाप किया है?’ विराट ने कहा- बेटा! मैंने ही इस कुटिल को मारा है। यह इतने सम्मान के योग्य कदापि नहीं है। देखो न, जब मैं तुम्हारे शौर्य की प्रशंसा करता हूँ, तब यह उस हिजड़े की बड़ाई करने लगता है।
उत्तर बोले- राजन्! आपने इन्हें मारकर बड़ा अनुचित कार्य किया है। शीघ्र ही इनको मनाइये; अन्यथा ब्राह्मण का भयंकर क्रोध विष आपको यहाँ जड़ मूल सहित भस्म कर डालेगा।
विराट द्वारा युधिष्ठिर से क्षमा माँगना
वैशम्पायन जी कहते हैं -राजन! पुत्र की यह बात सुनकर अपने राष्ट्र की वृद्धि करने वाले महाराज विराट ने राख में छिपी हुई अग्नि की भाँति तेजस्वी कुन्ती नन्दन युधिष्ठिर से क्षमा माँगी। राजा को क्षमा माँगते देख पाण्डु नन्दन युधिष्ठिर ने कहा- ‘राजन्! मैंने चिरकाल से क्षमा का व्रत ले रक्चाा है, अतः आपका यह अपराध क्षमा हो चुका है। मुझे आप पर जरा भी क्रोध नहीं है।[2]
‘महाराज! यदि नाक से बहने वाला यह रक्त धरती पर गिर जाता, तो आप सारे राष्ट्र के साथ नष्ट हो जाते इसमें कोई संदेह नहीं है। ‘राजन्! जो किसी की निन्दा या अपराध न करे, उसे मार देना अन्याय है, तथापि मैं आपके इस कार्य की निन्दा नहीं करता; क्योंकि बलवान राजा को प्रायः शीघ्र ही उेसे कठोर कर्म करने का अवसर प्राप्त हो जाता है’।
बृहन्नला का राजसभा में प्रवेश
वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन! जब युधिष्ठिर की नाक से रक्त बहना बंद हो गया, उस समय बृहन्नला ने राज सभा में प्रवेश किया। उसने विराट को नमस्कार करके कंक को भी प्रणाम किया।
विराट द्वारा उत्तर की प्रशंसा
इधर मत्स्य नरेश कुरुनन्दन युधिष्ठिर से क्षमा माँगकर सव्यसाची अर्जुन के सुनते ही रणभूमि से आये हुए उत्तर की प्रशंसा करने लगे। ‘कैकेयी नन्दन! तुम्हें पाकर मैं वास्तव में पुत्रवान हूँ। तुम्हारे समान मेरा दूसरा कोई पुत्र न हुआ है; न होगा ही। ‘तात! जो एक ही लक्ष्य के साथ-साथ सहस्रों लक्ष्यों का बेध करने के लिये बाण चलाता है और कहीं भी चूकता नहीं है, उस कर्ण के साथ तुम्हारा युद्ध किस प्रकार हुआ? बेटा! सारे मनुष्य लोक में जिनकी समानता करने वाला कोई नहीं है, उन भीष्म जी के साथ तुम्हारी भिडन्त किस प्रकार हुई ? ‘तात! जो वृष्णि वीरों और कौरवों दोनों के आचार्य हैं अथवा दोनों के ही नहीं, सम्पूर्ण क्षत्रियों के आचार्य हैं, समसत शस्त्र धारियों में जिनका सबसे ऊँचा स्थान है, उस द्रोणाचार्य के साथ तुम्हारा संग्राम किस प्रकार हुआ?
विराट का उत्तरकुमार से युद्ध का समाचार पूछना
‘आचार्य के जो शूरवीर पुत्र सम्पूर्ण शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ हैं, जिनकी अश्वत्थामा नाम से ख्याति है, उनके साथ तुम्हारी लड़ाई कैसे हुई ? ‘बेटा! जैसे वणिक् अपना धन छिन जाने पर दुखी होते हैं, उसी प्रकार युद्ध में जिन्हें देखकर बड़े-बड़े योद्धा शिथिल हो जाते हैं, उन कृपाचार्य के साथ तुम्हारा संग्राम किस प्रकार हुआ? ‘तात! जो राजपुत्र अपने महान बाणों से पर्वत को भी विदीर्ण कर सकता है, उस दुर्योधन के साथ तुम्हारी मुठभेड़ कैसे हुई ?। ‘बेटा! कौरवों ने जिस गोधन को संग्राम में हड़प लिया था, उसे तुम जीतकर ले आये, यह बहुत अच्छा हुआ। आज हमारे शत्रु परास्त हो गये, इसलिये आजकी वायु मुझे बड़ी सुख दायिनी प्रतीत हो रही है। - नरश्रेष्ठ! तुमने उन समस्त शत्रुओें को युद्ध में जीतकर उन्हें भय में डाल दिया है और उन समस्त बलशालियों के हाथ से अपने सारे गोधन को इस प्रकार छीन लिया है, जैसे सिंह दूसरे जन्तुओं के हाथ से मांस छीन लेता है’।[3]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ महाभारत विराट पर्व अध्याय 68 श्लोक 37-50
- ↑ महाभारत विराट पर्व अध्याय 68 श्लोक 51-63
- ↑ महाभारत विराट पर्व अध्याय 68 श्लोक 64-76
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