भीमसेन द्वारा जीमूत नामक मल्ल का वध

महाभारत विराट पर्व के समयपालन पर्व के अंतर्गत अध्याय 13 में भीमसेन द्वारा जीमूत नामक मल्ल का वध का वर्णन हुआ है[1]-

पाण्डवों द्वारा विराट की सेवा

जनमेजय ने पूछा- ब्रह्मन्! इस प्रकार मत्स्यदेश की राजधानी में गुप्तरूप से निवास करने वाले महापराक्रमी पाण्डुपुत्रों ने इसके बाद क्या किया ?

वैशम्पायन जी कहते हैं - राजन! इस प्रकार मत्स्यदेश की राजधानी में गुप्तरूप से निवास करने वाले पाण्डवों ने राजा विराट की सेवा करते हुए जो-जो कार्य किया वह सुनो। राजर्षि तृणबिन्दु और महात्मा धर्म के प्रसाद से पाण्डव लोग इस प्रकार विराट के नगर में अज्ञातवास के दिन पूरे करने लगे। महाराज युधिष्ठिर राजसभा के प्रमुख सदस्य और मत्स्यदेश की प्रजा के अत्यन्त प्रिय थे। राजन! इसी प्रकार पुत्र सहित राजा विराट का भी उनपर विशेश प्रेम था। वे पासों का मर्म जानते थे। जैसे कोई सूत में बाँधे हुए पक्षियों को इच्छानुसार उड़ावे, उसी प्रकार वे द्यूतशाला में पासों को अपने इच्छानुसार फेंकते हुए राजा आदि को जूआ खेलाया करते थे।

पाण्डवों द्वारा धन को बांटना

पुरुषसिंह धर्मराज युधिष्ठिर जूए में धन जीतकर अपने भाइयों को यथावत बाँट देते थे।’ इसका राजा विराट को भी पता नहीं लगता था। भीमसेन भी नाना प्रकार के भक्ष्य-भोज्य पदार्थ, जो मत्स्यनरेश द्वारा उन्हें पुरस्कार रूप में प्राप्त होते, बेच देते और उससे मिला हुआ धन युधिष्ठिर की सेवा में अर्पित करते थे। अर्जुन को अन्तःपुर में जो पुराने उतारे हुए बहुमूल्य वस्त्र प्राप्त होते, उन्हें वे बेचते और बेचने से मिला हुआ मुल्य सब पाण्डवों को देते थे। पाण्डुनन्दन सहदेव भी ग्वालों का वेश धारणकर पाण्डवों को दही, दूध और घी दिया करते थे। नकुल भी घोड़ों के शिक्षा का कार्य करके महाराज विराट के संतुष्ट होने पर उनसे पुरस्कार स्वरूप जो धन पाते, उसे सब पाण्डवों को बाँट दिया करते थे। तपस्विनी एवं सुन्दरी द्रौपदी भी उन सब पतियों की देखभाल करती हुई ऐसा बर्ताव करती, जिससे फिर कोई उसे पहचान न सके।

पाण्डवों द्वारा छिपकर अज्ञातवास काटना

इस प्रकार एक दूसरे का सहयोग करते हुए वे महारथी पाण्डव विराटनगर में बहुत छिपकर रहते थे; मानो पुनः माता के गर्भ में निवास कर रहे हों। राजन! दुर्योधन द्वारा पहचान लिये जाने के भय से पाण्डव सदा सशंक रहते थे; अतः वे उस समय द्रौपदी की देखभाल करते हुए भी छिपकर ही वहाँ निवास करते थे। तदनन्तर चैथा महीना प्रारम्भ होने पर मत्स्यदेश में ब्रह्मा जी की पूजा का महान उत्सव मनाया जाने लगा। इसमें बड़ा समारोह होता था। मत्स्यदेश के लोगों को यह बहुत प्रिय था। जनमेजय!

मल्ल युद्ध के लिए मल्लों का आगमन

उस समय विराटनगर में चारों दिशाओं से हजारों कुश्ती लड़ने वाले मल्ल जुटने लगे। इसी अवसर पर ब्रह्मा जी और भगवान शंकर की सभा के समान उस राजधानी में लोगों का जमाव होता था। वहाँ आये हुए विशालकाय और महान बलशाली मल्ल कालखन्ज नामक असुरों के समान जान पड़ते थे। वे सब अपनी शक्ति और पराक्रम के मद से उन्मत्त थे एवं बल में बहुत बढ़े-चढ़े थे। राजा विराट ने उन सबका खूब स्वागत सत्कार किया। उनके कंधे, कमर, आर कण्ठ सिंह के समान थे। वे निर्मल यश से सुशोभित और मनस्वी थे। उन्होंने अनेक बार राजा के समीप रंगभूमि (अखाड़े) में विजय पायी थी।

उन सब में एक बहुत बड़ा पहलवान था, जो दूसरे सब पहलवानों को अपने साथ लड़ने के लिये ललकारता था। जब वह अखाड़े में उतरकर उछलने लगा, उस समय कोई भी उसके समीप खड़ा न हो सका। जब वे सभी मल्ल उदासीन हो हिम्मत हार बैठे, तब मत्स्यनरेश ने रसोइये से उस पहलवान को लड़ाने का निश्चय किया। उस समय राजा से प्रेरित होने पर भीमसेन ने (पहचाने जाने के भय से) दुखी होकर ही उससे लड़ने का विचार किया। वे राजा की बात को प्रकट रूप में टाल नहीं सकते थे। तदनन्तर पुरुषसिंह भीम ने सिंह के समान धीमी चाल से चलते हुए राजा विराट का मान रखने के लिये उस विशाल रंगभूमि में प्रवेश किया।

भीमसेन का जीमूत नामक मल्ल के साथ मल्ल युद्ध

फिर लोगों में हर्ष का संचार करते हुए उन्होंने लँगोट बाँधा और उस प्रसिद्ध पराक्रमी जीमूत नामक मल्ल को, जो वृत्रासुर के समान दिखायी देता था, युद्ध के लिये ललकारा। वे दोनों बड़े उत्साह में भरे थे। दोनों ही प्रचण्ड पराक्रमी थे, ऐसा लगता था मानो साठ वर्ष के दो मतवाले एवं विशालकाय गजराज एक दूसरे से भिड़ने को उद्यत हों। अत्यनत हर्ष में भरकर एक दूसरे को जीत लेने की इच्छा वाले वे दोनों नरश्रेष्ठ वीर बाहुयुद्ध करने लगे। उस समय उन दोनों में बड़ी भयंकर भिड़न्त हुई। उनके परस्पर के आघात से इस प्रकार चटचट शब्द होने लगा, मानो वज्र और पर्वत एक दूसरे से टकरा गये हों। दोनों अत्यन्त प्रसन्न थे। बल से दोनो ही अत्यन्त बलशाली थे और एक दूसरे पर चोट करने का अवसर देखते हुए विजय के अभिलाषी हो रहे थे। दोनों में भरपूर हर्ष और उत्साह भरा था। दोनों ही मतवाले गजराजों की भाँति एक दूसरे से भिड़े हुए थे। जब एक दूसरे का कोई अंग जोर से दबाता, तब दूसरा फौरन उसका प्रतिकार करता- उस अंग को उसकी पकड़ से छुड़ा लेता था। दोनों एक दूसरे के हाथों को मुट्ठी से पकड़कर विवश कर देते और विचित्र ढंग से परस्पर प्रहार करते थे। दोनों आपस में गुँथ जाते और फिर धक्के देकर एक दूसरे को दूर हटा देते। कभी एक दूसरे को पटककर जमीन पर रगड़ता, तो दूसरो नीचे से ही कुलाँचकर ऊपरवाले को दूर फेंक देता था उसे लिये-दिये खड़ा हो अपने शरीर को दबाकर उसके अंगों को भी मथ डालता था। कभी दोनों को बलपूर्वक पीछे हटाते और मुक्कों से एक दूसरे की छाती पर चोट करते थे। कभी एक को दूसरा अपने कंधे पर उठा लेता और उसका मुँह नीचे करके घुमाकर पटक देता था, जिससे ऐसा शब्द होता; मानो किसी शूकर ने चोट की हो।

कभी परस्पर तर्जनी और अंगूठे के मध्यभाग को फैलाकर चाँटों की मार होती और कभी हाथ की अंगुलियों को फैलाकर वे एक-दूसरे को थप्पड़ मारते थे। कभी वे रोषपूर्वक अंगुलियों के नखों से एक दूसरे को बकोटते। कभी पैरों से उलझाकर दोनों दोनो को गिरा देते। कभी घुटने और सिर से अक्कर मारते; अजस से पत्थर टकराने के समान भयंकर शब्द होता था।[2] कभी वे प्रतिपक्षी को गोद में घसीट लाते, कभी खेल में ही उसे सामने खींच लेते, कभी आगे-पीछे, कभी दायें-बायें पैंतरे बदलते और कभी सहसा पीछे ढकेलकर पटक देते थे। इस तरह दोनों दोनों को अपनी ओर खींचते और घुटनों से एक दूसरे पर प्रहार करते थे। उस सामूहिक उत्सव में पहलवानों और जनसमुदाय के निकट उन दोनों में केवल बाहुबल, शारीरिक बल तथा प्राणबल से किसी अस्त्र-शस्त्र के बिना बड़ा भयंकर युद्ध हुआ। राजन! इन्द्र और वृत्रासुर के समान भीम और जीमूत के उस मल्लयुद्ध में सब लोगों को बड़ा मनोरंजन हुआ। सभी दर्शक जीतने वाले का उत्साह बढ़ाने के लिये जोर-जोर से हर्षनाद कर उठते थे। तदनन्तर चौड़ी छाती और लंबी भुजा वाले, कुश्ती के दाँव-पेंच में कुशल वे दोनों वीर गम्भीर गर्जना के साथ एक-दूसरे को डाँट बताते हुए लोहे के परिघ (माटे डंडे) जैसी बाँहें मिलाकर परस्पर भिड़ गये। फिर विपुलपराक्रमी शत्रुहन्ता महाबाहु भीमसेन ने गर्जना करते हुए, जैसे सिंह हाथी पर झपटे, उसी प्रकार झपटकर जीमूत को दोनों हाथों से पकड़कर खींचा और ऊपर उठाकर उसे घुमाना आरम्भ किया। यह देख वहाँ आये हुए पहलवानों तथा मत्स्यदेश की प्रजा को बड़ा आश्चर्य हुआ।

भीमसेन द्वारा जीमूत नामक मल्ल का वध

सौ बार घुमाने पर जब वह धैर्य, साहस और चेतना से भी हाथ धो बैठा, तब बड़ी-बड़ी बाहुओं वाले वृकोदर ने उसे पृथ्वी पर गिराकर मसल डाला। इस प्रकार उस लोकविख्यात वीर जीमूत के मारे जाने पर राजा विराट को अपने बन्धु-बान्धवों के साथ बड़ी प्रसन्नता हुई। उस समय कुबेर के समान महामनस्वी राजा विराट ने अत्यन्त हर्ष में भरकर बल्लव को उस विशाल रंगभूमि में ही बहुत धन दिया। इसी तरह बहुत से पहलवानों और महाबलीद पुरुषों को मार कर भीमसेन ने मत्स्यनरेश विराट का उत्तम प्रेम प्राप्त किया।। जब वहाँ उनकी जोड़ की कोई पहलवान नहीं रह गया, तब विराट उन्हें व्याघ्रों, सिंहों और हाथियों से लड़ाने लगे। कभी-कभी विराट की प्रेरणा से स्त्रियों के अन्तःपुर में जाकर भीमसेन उन्हें दिखाने के लिये महान बलवान और मतवाले सिंहों से लड़ा करते थे।

पाण्डवों द्वारा राजा विराट को संतुष्ट करना

पाण्डुनन्दन अर्जुन ने भी अपने गीत और नृत्य से राजा विराट तथा अन्तःपुर की सम्पूर्ण स्त्रियों को संतुष्ट कर लिया था। इसी प्रकार नकुल ने जहाँ-तहाँ आये हुए वेगवान घोड़ों को सुशिक्षित करके नृपश्रेष्ठ विराट को प्रसन्न किया था। प्रसन्न होकर राजा ने पुरस्कार के रूप में बहुत सा धन दिया था। इसी तरह सहदेव के द्वारा शिक्षित एवं विनीत किये हुए बैलों को देखकर नरश्रेष्ठ विराट ने उन्हें भी इनाम में बहुत धन दिया। राजन! अपने सम्पूर्ण महारथी पतियों को इस प्रकार क्लेश उठाते देख द्रौपदी के मन में खेद होता था और वह लंबी साँसें भरती रहती थी। इस प्रकार वे पुरुषशिरोमधि पाण्डव उस समय राजा विराट के भिन्न-भिनन कार्य संभालते हुए वहाँ छिपकर रहते थे।[3]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत विराट पर्व अध्याय 13 श्लोक 1-17
  2. महाभारत विराट पर्व अध्याय 13 श्लोक 18-29
  3. महाभारत विराट पर्व अध्याय 13 श्लोक 30-46

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पांडवप्रवेश पर्व
विराटनगर में अज्ञातवास करने हेतु पांडवों की गुप्त मंत्रणा | अज्ञातवास हेतु युधिष्ठिर द्वारा अपने भावी कार्यक्रम का दिग्दर्शन | भीमसेन और अर्जुन द्वारा अज्ञातवास हेतु अपने अनुकूल कार्यों का वर्णन | नकुल, सहदेव और द्रौपदी द्वारा अज्ञातवास हेतु अपने कर्तव्यों का दिग्दर्शन | धौम्य द्वारा पांडवों को राजा के यहाँ रहने का ढंग बताना | पांडवों का श्मशान में शमी वृक्ष पर अपने अस्त्र-शस्त्र रखना | युधिष्ठिर द्वारा दुर्गा देवी की स्तुति | युधिष्ठिर का राजसभा में राजा विराट से मिलना | युधिष्ठिर का विराट के यहाँ निवास पाना | भीमसेन का विराट की सभा में प्रवेश और राजा द्वारा उनको आश्वासन | द्रौपदी का सैरन्ध्री के वेश में रानी सुदेष्णा से वार्तालाप | द्रौपदी का रानी सुदेष्णा के यहाँ निवास पाना | सहदेव की विराट के यहाँ गौशाला में नियुक्ति | अर्जुन की विराट के यहाँ नृत्य प्रशिक्षक के पद पर नियुक्ति | नकुल का विराट के अश्वों की देखरेख में नियुक्त होना
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