धौम्य द्वारा पांडवों को राजा के यहाँ रहने का ढंग बताना

महाभारत विराट पर्व के पांडवप्रवेश पर्व के अंतर्गत अध्याय 4 में धौम्य द्वारा पांडवों को राजा के यहाँ रहने का ढंग बताने का वर्णन हुआ है। यहाँ वैशम्पायन जी ने जनमेजय से धौम्य द्वारा पांडवों को राजा के यहाँ रहने का ढंग बताने के वर्णन की कथा कही है।[1]

युधिष्ठिर कथन

युधिष्ठिर बोले- विराट के यहाँ रहकर तुम्हें जो-जो कार्य करने हैं, वे सब तुमने बताये। मुझे भी अपनी बुद्धि के अनुसार जो कार्य उचित प्रतीत हुआ, वह कह चुका। जान पड़ता है कि विधाता का यही निश्चय है। अब मेरी सलाह यह है कि ये पुरोहित धौम्य जी रसोइयों तथा पाकशालाध्यक्ष के साथ राजा द्रुपद के घर जाकर रहें और वहाँ हमारे अग्निहोत्र की अग्नियों की रक्षा करें तथा ये इन्द्रसेन आदि सेवकगण केवल रथों को लेकर शीघ्र यहाँ से द्वारका चले जायँ। और ये जो द्रौपदी की सेवा करने वाली स्त्रियाँ हैं, वे सब रसोइयों और पाकशालाध्यक्ष के साथ पाञ्चाल देश को ही चली जायँ। वहाँ सब लोग यही कहें- ‘हमें पाण्डवों का कुछ भी पता नहीं है। वे सब द्वैतवन से ही हमें छोड़कर न जाने कहाँ चले गये’।

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! इस प्रकार आपस में एक दूसरे की सलाह लेकर और अपने पृथक-पृथक कर्म बतलाकर पाण्डवों ने पुरोहित धौम्य की भी सम्मति ली। तब पुरोहित धौम्य ने उन्हें इस प्रकार सलाह दी।

धौम्य द्वारा राजा के यहाँ रहने का वर्णन

धौम्य जी बोले- पाण्डवों! ब्राह्मणों, सुहृदों, सवारी या युद्ध-यात्रा, आयुध या युद्ध तथा अग्नियों के प्रति जो शास्त्रविहित कर्तव्य हैं, उन्हें तुम अच्छी तरह जानते हो और तदनुकूल तुमने जो व्यवस्था की है, वह सब ठीक है। भारत! अब मैं तुमसे यह कहना चाहता हूँ कि तुम और अर्जुन सावधान रहकर सदा द्रौपदी की रक्षा करना। लोक व्यवहार की सभी बातें अथवा साधारण लोगों के व्यवहार तुम सब लोगों को विदित हैं। विदित होने पर हितैषी सुहृदों का कर्तव्य है कि वे स्नेहवश हित की बात बतावें। यही सनातन धर्म है और इसी से काम एवं अर्थ की प्राप्ति होती है। इसलिये मैं भी जो युक्ति युक्त बातें बताऊँगा, उन्हें यहाँ ध्यान देकर सुनो। राजपुत्रों! मैं यह बता रहा हूँ कि राजा के घर में रहकर कैसा बर्ताव करना चाहिये? उसके अनुसार राजकुल में रहते हुए भी तुम लोग वहाँ के सब दोषों से पार हो जाओगे। कुरुनन्दन! विवेकी पुरुष के लिये भी राजमहल में निवास करना अत्यन्त कठिन है। वहाँ तुम्हारा अपमान हो या सम्मान, सब कुछ सहकर एक वर्ष तक अज्ञातभाव से रहना चाहिये। तदनन्तर चौदहवें वर्ष में तुम लोग अपनी इच्छा के अनुसार सुखपूर्वक विचरण कर सकोगे। राजा से मिलना हो, तो पहले द्वारपाल से मिलकर राजा को सूचना देनी चाहिये और मिलने के लिये उनकी आज्ञा माँग लेनी चाहिये। इन राजाओं पर पूर्ण विश्वास कभी न करें। आने लिये वही आसन पसंद करें, जिस पर दूसरा कोई बैठने वाला न हो। जो ‘में राजा का प्रिय व्यक्ति हूँ-, यों मानकर कभी राजा की सवारी, पलंग, पादुका, हाथी एवं रथ आदि पर नहीं चढ़ता है, वही राजा के घर में कुशल पूर्वक रह सकता है। जिन-जिन स्थानों पर बैठने से दुराचारी मनुष्य संदेह करते हों, वहाँ-वहाँ जो कभी नहीं बैठता, वह राजभवन में रह सकता है। बिना पूछे राजा को कभी कर्तव्य का उपदेश न दें। मौनभाव से ही उसकी सेवा करें और उपयुक्त अवसर पर राजा की प्रशंसा भी करें।[1]


झूठ बोलने वाले मनुष्यों के प्रति राजालोग दोष दृष्टि कर लेते हैं। इसी प्रकार वे मिथ्यावादी मन्त्री का भी अपमान करते हैं। बुद्धिमान पुरुष को चाहिये कि वह राजाओं की रानियों से मेल जोल न करे और जो रानीवास में आते-जाते हों, राजा जिनसे द्वेष रखते हों तथा जो लोग राजा का अहित चाहने वाले हों, उनसे भी मैत्री स्थापित करें। छोटे-से छोटे कार्य भी राजा को जनाकर ही करें। राजदरबार में ऐसा आचरण करने वाले मनुष्यों को कभी हानि नहीं उठानी पड़ती। बैठने के लिये अपने को ऊँचा आसन प्राप्त होता हो, तो भी जब तक राजा न पूछें- बैठने का आदेश न दें, तब तक राजदरबार की मर्यादा का खयाल करके अपने को जन्मान्ध सा माने, मानो उस आसन को वह देखता ही न हो। इस भाव से खड़ा रहकर राजाज्ञा की प्रतिक्षा करता रहे। क्योकि शत्रुविजयी राजा लोग मर्यादा का उल्लंघन करने वाले अपने पुत्र, नाती-पोते और भाई का भी आदर नहीं करते। इस जगत में राजा को अग्नि के समान दाहक मानकर उसके अत्यन्त निकट न रहे और देवता के समान निग्रह तथा अनुग्रह में समर्थ जानकर उसकी कभी अवहेलना न करे। इस प्रकार यत्नपूर्वक उसकी परिचर्या में संलग्न रहें। इसमें संदेह नहीं कि जो मिथ्या एवं कपटपूर्ण उपचार के द्वारा राजा की सेवा करता है, वह एक दिन अवश्य उसके हाथ से मारा जाता है। राजा जिस-जिस कार्य के लिये आज्ञा दे, उसी का पालन करे। लापरवाही, घमंड और क्रोध को सर्वथा त्याग दें। कर्तव्य और अकर्तव्य के निर्णय के सभी अवसरों पर हितकारक और प्रिय वचन कहें। यदि दोनों सम्भव न हों, तो प्रिय वचन का त्याग करके भी जो हितकारक हो, वही बात कहे [2] सभी विषयो तथा सब बातों में राजा के अनुकूल रहे। कथावार्ता में भी राजा के सामने ऐसी बातों की बार-बार चर्चा न करे, जो उसे अप्रिय एवं अहितकर प्रतीत होती हों। विद्वान पुरुष ‘मैं राजा क प्रिय व्यक्ति नहीं हूँ’, ऐसा मानता हुआ सदा सावधान रहकर उसकी सेवा करे। राजा के लिये जो हितकर और प्रिय हो, वही कार्य करे। जो चीज राजा को पसंद न हो, उसका कदापि सेवन न करे।

उसके शत्रुओं से बातचीत न करे और अपने स्थान से कभी विचलित न हो। ऐसा बर्ताव करने वाला मनुष्य ही राजा के यहाँ सकुशल रह सकता है। विद्वान पुरुष को चाहिये कि वह राजा के दाहिने या बायें भाग में बैठे; क्योंकि राजा के पीछे अस्त्र-शस्त्रधारी अंगरक्षकों का स्थान होता है। राजा के सामने किसी के लिये भी ऊँचा आसन लगाना सर्वथा निषिद्ध है। उसकी आँखों के सामने यदि कोई पुरस्कार-वितरण या वेतनदान आदि का कार्य हो रहा हो, तो उसमें बिना बुलाये स्वयं पहले स्वयं पहले लेने की चेष्टा नहीं करनी चाहिये। क्योंकि ऐसी ढिठाई तो दरिद्रों को भी बहुत अप्रिय जान पड़ती है; फिर राजाओं की तो बात ही क्या है? राजाओं की किसी झूठी बात को दूसरे मनुष्य के सामने प्रकाशित न करे। क्योंकि झूठ बोलने वाले मनुष्यों से राजा लोग द्वेष मान लेते हैं। इसी तरह जो लोग अपने को पण्डित मानते हैं, उनका भी राजा तिरस्कार करते हैं।[3]

धौम्य द्वारा पांडवों को समझाना

मैं शूरवीर हूँ अथवा बड़ा बुद्धिमान हूँ’, ऐसा घमंड न करें। जो सदा राजा को प्रिय लगने वाले र्काय की करता है, वही उसका प्रेमपात्र तथा ऐश्वर्यभोग से प्रसन्न रहता है। राजा से दुर्लभ ऐश्वर्य तथा प्रिय भोग प्राप्त होने पर मनुष्य सदा सावधान होकर उसके प्रिय एवं हितकर कार्यों में संलग्न रहे। जिसका क्रोध बड़ा भारी संकट उपस्थित कर देता है और जिसकी प्रसन्नता महान फल- ऐश्वर्य-भोग देने वाली है, उस राजा का कौन बुद्धिमान पुरुष मन से भी अनिष्ट साधन करना चाहेगा? राजा के समख अपने दोनों हाथ, आठ और घुटनों को व्यर्थ न हिलावें; बकवाद न करें। सदा शनैः शनैः बोलें। धीरे से थूकें और दूसरों को पता न चले, इस प्रकार अधोवायु छोड़ें। किसी दूसरे व्यक्ति के सम्बन्ध में कोई हास्य जनक वस्तु दिखायी दे, तो अधिक हर्ष न प्रकट करें एवं पागलों की तरह अट्टहास न करें तथा अतयन्त धैर्य के कारण जड़वत निश्चेष्ट हाकर भी न रहें। इससे वह गौरव (सम्मान) को प्राप्त होता है। मनमें प्रसन्नता होने पर मुख से मृदुल (मन्द) मुस्कान का ही प्रदर्शन करें। जो अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति होने पर (अधिक) हर्षित नहीं होता अथवा अपमानित होने पर अधिक व्यथा का अनुभव नहीं करता और सदा मोहशून्य होकर विवेक से काम लेता है, वही राजा के यहाँ सुखपूर्वक रह सकता है। जो बुद्धिमान सचिव सदा राजा अथवा राजकुमार की प्रशंसा करता रहता है, वही राजा के यहाँ उसका प्रीतिपात्र होकर टिक सकता है। यदि कोई मन्त्री पहले राजा का कृपा पात्र रहा हो और पीछे से अकारण उसे दण्ड भोगना पड़ा हो, उस दशा में भी जो राजा की निन्दा नहीं करता, वह पुनः अपने पूर्व वैभव को प्राप्त कर लेता है। जो बुद्धिमान राजा के आश्रित रहकर जीवन निर्वाह अािवा उसके राज्य में निवास करता है, उसे राजा के सामने अथवा पीठ पीछे भी उसके गुणों की ही चर्चा करनी चाहिये। जो मन्त्री राजा को बलपूर्वक अपने अधीन करना चाहता है, वह अधिक समय तक अपने पद पर नहीं टिक सकता। इतना ही नही, उसके प्राणों परद भी सुकट आ जाता है। अपनी भलाई अथवा लाभ देखकर दूसरे काक सदा राजा के साथ न मिलायें; न बातचीत करावे। उपयुक्त स्थान और अवसर देखकर सदा राजा की विशेषता प्रकट करें। जो उत्साहसम्पन्न, बुद्धि-बल से युक्त, शूरवीर, सत्यवादी, कोमलस्वभाव और जितेन्द्रिय होकर सदा छाया की भाँति राजा का अनुसरण करता है, वही राजदरबार में टिक सकता है। जब दूसर को किसी कार्य के लिये भेजा जा रहा हो, उस समय जो स्वयं की उठकर आगे आये और पूछे- ‘मेरे लिये क्या आज्ञा है’, वही राजभवन में निवास कर सकता है। जो राजा के द्वारा आन्तरिक (धन एवं स्त्री आदि की रक्षा) और बाह्य (शत्रुविजय आदि) कार्यों के लिये आदेश मिलने पर कभी शंकित या भयभीत नहीं होता, वही राजा के यहाँ रह सकता है। जो घर-बार छोड़कर परदेश में रहने पर भी प्रियजनों एवं अभीष्ट भोगों का स्मरण नहीं करता और कष्ट सहकर सुख पाने की इच्छा करता है, वही राजदरबार में टिक सकता है।[4]

राजा के समान वेशभूषा न धारण करे। उसके अत्यन्त निकट न रहे। उसके सामने उच्च आसन पर न बैठे। अपने साथ राजा ने जो गुप्त सलाह की हो उसें दूसरों पर प्रकट न करें। ऐसा करने से ही मनुष्य राजा का प्रिय हो सकता है। यदि राजा ने किसी काम पर नियुक्त किया हो, तो उसमें घूस के रूप में थोड़ा भी धन न लें; क्योंकि जो इस प्रकार चोरी से धन लेता है, उसे एक दिन बन्धन अथवा वध का दण्ड भोगना पड़ता है। राजा प्रसन्न होकर सवारी, वस्त्र, आभूषण तथा और भी जो कोई वस्तु दे, उसी को सदा धारण करें या उपयोग में लायें। ऐसा करने से वह राजा का अधिक प्रिय होता है। तात युधिष्ठिर एवं पाण्डवों! इस प्रकार प्रयत्नपूर्वक अपने मन को वश में रखकर पूर्वोक्त रीति से उत्तम बर्ताव करते हुए इस तेरहवें वर्ष को व्यतीत करो और इसी रूप में रहकर एश्वर्य पाने की इच्छा करो। तदनन्तर अपने राज्य में आकर इच्छानुसार व्यवहार करना।

पांडवों द्वारा प्रस्थान

युधिष्ठिर बोले- ब्रह्मन्! आपका भला हो। आपने हमें बहुत अच्छी शिक्षा दी। हमारी माता कुन्ती तथा महाबुद्धिमान विदुर जी को छोडकर दूसरा कोई नहीं है, जो हमें ऐसी बात बताये। अब हमें इस दुःख सागर से पार होने, यहाँ से प्रस्थान करने और विजय पाने के लिये जो कर्तव्य आवश्यक हो, उसे आप पूर्ण करें।

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! राजा युधिष्ठिर के ऐसा कहने पर विप्रवर धौम्य जी ने यात्रा के समय जो आवश्यक शास्त्रविहित कर्तव्य है, वह सब विधिपूर्वक सम्पन्न किया। पाण्डवों की अग्निहोत्र सम्बन्धी अग्नि को प्रज्वलित करके उन्होंने उनकी समृद्धि, वृद्धि राज्य लाभ तथा पृथ्वी पर विजय प्राप्ति के लिये वेद मन्त्र पढ़कर होम किया। तत्पश्चात् पाण्डवों ने अग्नि तथा तपस्वी ब्राह्मणों की परिक्रमा करके द्रौपदी को आगे रखकर वहाँ से प्रस्थान किया। कुल छः व्यक्ति ही आसन छोड़कर एक साथ चले गये। उन पाण्डव वीरों के चले जाने पर जप यज्ञ करने वालों में श्रेष्ठ धौम्य जी उस अग्निहोत्र सम्बन्धी अग्नि को साथ लेकर पाञ्चाल देश में चले गये। इन्द्रसेन आदि सेवक भी पूर्वोक्त आदेश पाकर यदुवंशियों की नगरी द्वारका में जा पहुँचे और वहाँ स्वयं सुरक्षित हो रथ और घोड़ो की रक्षा करते हुए सुखपूर्वक रहने लगे।[5]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत विराट पर्व अध्याय 4 श्लोक 1-16
  2. हितविरोधी प्रिय वचन कदापि न कहें।
  3. महाभारत विराट पर्व अध्याय 4 श्लोक 17-31
  4. महाभारत विराट पर्व अध्याय 4 श्लोक 32-47
  5. महाभारत विराट पर्व अध्याय 4 श्लोक 48-58

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पांडवप्रवेश पर्व
विराटनगर में अज्ञातवास करने हेतु पांडवों की गुप्त मंत्रणा | अज्ञातवास हेतु युधिष्ठिर द्वारा अपने भावी कार्यक्रम का दिग्दर्शन | भीमसेन और अर्जुन द्वारा अज्ञातवास हेतु अपने अनुकूल कार्यों का वर्णन | नकुल, सहदेव और द्रौपदी द्वारा अज्ञातवास हेतु अपने कर्तव्यों का दिग्दर्शन | धौम्य द्वारा पांडवों को राजा के यहाँ रहने का ढंग बताना | पांडवों का श्मशान में शमी वृक्ष पर अपने अस्त्र-शस्त्र रखना | युधिष्ठिर द्वारा दुर्गा देवी की स्तुति | युधिष्ठिर का राजसभा में राजा विराट से मिलना | युधिष्ठिर का विराट के यहाँ निवास पाना | भीमसेन का विराट की सभा में प्रवेश और राजा द्वारा उनको आश्वासन | द्रौपदी का सैरन्ध्री के वेश में रानी सुदेष्णा से वार्तालाप | द्रौपदी का रानी सुदेष्णा के यहाँ निवास पाना | सहदेव की विराट के यहाँ गौशाला में नियुक्ति | अर्जुन की विराट के यहाँ नृत्य प्रशिक्षक के पद पर नियुक्ति | नकुल का विराट के अश्वों की देखरेख में नियुक्त होना
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