द्रौपदी का भीमसेन से अपना दु:ख निवेदन करना

महाभारत विराट पर्व के कीचकवध पर्व के अंतर्गत अध्याय 20 में द्रौपदी का भीमसेन से अपना दु:ख निवेदन करने का वर्णन हुआ है[1]-

द्रौपदी द्वारा अपनी दुर्दशा का वर्णन

द्रौपदी कहती हैं- परंतप! तुम्हारे जूए में चतुर चालाक भाई के कारण आज मैं राजमहल में सैरन्ध्री का वेश धारण करके टहल बजाती और रानी सुदेष्णा को स्नान की वस्तुएँ जुटा कर देती हूँ। राजपुत्री होकर भी मुझे कैसा भारी हीन कार्य करना पड़ता है, यह अपनी आँखों से देख लो; परंतु सब लोग अपने अभ्युदय का अवसर देखते रहते हैं; क्योंकि यदि दुःख आता है? तो उसका अन्त भी होता ही है। मनुष्यों की अर्थसिद्धि या जय-पराजय अनित्य हैं। वे सदा सिथर नहीं रहते। यही सोचकर मैं अपने पतियों के पुनः अभ्युदय की प्रतीक्षा करती हूँ। धन और व्यसन (सम्पत्ति और विपत्ति) सदा गाड़ी के पहिये की तरह घूमा करते हैं; ऐसा विचारकर मैं पतियों के पुनः अभ्युदयकाल की प्रतीक्षा करती हूँ। जो काल मनुष्य के लिये विजयकाल होता है, वही उसकी पराजय का भी कारण बन जाता है। ऐसा विचार कर मैं अपने पक्ष की विजय के अवसर की राह देखती हूँ। भीमसेन! क्या तुम नहीं जानते कि इन दुःखों के आघात से मैं मरी हुई सी हो गयी हूँ। मैंने सुना है, जो मनुष्य दान करते हैं, वे ही कभी याचना के लिये विवश हो जाते हैं। दूसरे बहुत से मनुष्य ऐसे हैं, जो दूसरों को मारकर स्वयं भी दूसरों के द्वारा मारे जाते हैं तथा जो दूसरों को नीचे गिराते हें, वे स्वयं भी दूसरे प्रतिपक्षियों द्वारा नीचे गिराये जाते हैं। अतः दैव के लिये कुछ भी दुष्कर नहीं है। दैव के विधान को लाँघ जाना भी असम्भव है। इसलिये मैं दैव की प्रधानता बताने वाले शास्त्र-वचनों कर पालन करती- उन्हें आदर देती हूँ। पानी जहाँ पहले स्थिर होता है, वह फिर भी वहीं ठहरता है। इस क्रम को चाहती हुई मैं पुनः अभ्युदयकाल की प्रतीक्षा करती हूँ। उत्तम नीति द्वारा युरक्षित पदार्थ भी यदि दैव प्रतिकूल हो, तो उसके द्वारा नष्ट हो जाता है; अतः विज्ञ पुरुष को दैव को अनुकूल बनाने का ही प्रयत्न करना चहिये।

मैंने इस समय जो ये यथार्थ बातें कही हैं, इनका क्या प्रयोजन है ? यह मुझ दुखिया से पूछो। तुम्हारे पूछने पर यहाँ मैं यथार्थ बात बताती हूँ, सुनो। मैं पाण्डवों की पटरानी और द्रुपद की पुत्री होकर भी ऐसी दुर्दशा में पड़ी हूँ। मेरे सिवा दूसरी कौन स्त्री ऐसी अवस्था में जीना चाहेगी ? भारत! शत्रुदमन! मुझपर पड़ा हुआ यह क्लेश समस्त कौरवों, पाञ्चालों और पाण्डवों के लिये अपमान की बात है। जिसके बहुत से भाई, श्वसुर और पुत्र हों, जो इन सबसे घिरी हुई हो तथा भलीभाँति अभ्युदयशील हो, ऐसी परिस्थिति में मेरे सिवा दूसरी कौन स्त्री दुःख भोगने के लिये विवश हुई होगी? भरतश्रेष्ठ! जान पड़ता है, बचपन में मेंने विधाता का निश्चय ही महान अपराध किया है,ए जिसके फलस्वरूप मैं आज इस दुर्दशा में पड़ गयी हूँ। पाण्डुनन्दन! देखो, मेरे शरीर की कान्ति कैसी फीकी पड़ गयी है। यहाँ नगर में मेरी जो अवस्था है, वह उन दिनों अत्यन्त दुःख पूर्ण वनवास के समय भी नहीं थी। भीमसेन! तुम्हीं जानते हो, पहले मुझे कितना सुख था। यहाँ आकर जब से मैं दासीभाव को प्राप्त हुई हूँ, तभी से परतन्त्र होने के कारण मुझे तनिक भी शान्ति नहीं मिलती है। इसे मैं दैव की ही लीला मानती हूँ। जहाँ प्रचण्ड धनुष धारण करने वाले महाबाहु अर्जुन भी राख से ढकी हुई अग्नि की भाँति रनिवास में छिपकर रहते हैं। कुन्तीनन्दन! दैवाधीन प्राणियों की कब क्या गति होगी, इसे जानना मनुष्यों के लिये सर्वथा असम्भव है। मैं तो समझती हूँ, तुम लोगों की जो अवनति हुई है, इसकी किसी के मन में कल्पना तक नहीं थी। एक दिन था कि इन्द्र समान पराक्रमी तुम सब भाई सदा मेरा मुँह निहारा करते थे। आज वही मैं श्रेष्ठ होकर भी अपने से निकृष्ट दूसरी स्त्रियों का मुँह जोहती रहती हूँ। पाण्डुनन्दन! देखो, तुम सब के जीते जी मैं ऐसी बुरी हालत में पड़ी हूँ, जो मेरे लिये कदापि उचित नहीं है।

द्रौपदी का विलाप

समय के इस उलट-फेर को तो देखो; एक दिन समुद्र के पास तक की पृथ्वी जिसके अधीन थी, वही मैं आज सुदेष्णा के वश में होकर उससे डरती रहती हूँ। जिसके आगे और पीछे बहुत-से सेवक रहा करते थे, वही मैं अब रानी सुदेष्णा के आगे और पीछे चलती हूँ। कुन्तीकुमार! इसके सिवा मेरे एक और असह्य दुःख को तो देखो। पहले में माता कुन्ती को छोड़कर[2]स्वयं अपने लिये भी कभी उबटन नहीं पीसती थी; किंतु वही मैं आज दूसरों के लिये चन्दन घिसती हूँ। पार्थ! देखो, ये मेरे दोनों हाथ, जिनमें घड्डे पड़ गये हैं, पहले ये ऐसे नहीं थे। ऐसा कहकर द्रौपदी ने भीमसेन को अपने दोनों हाथ दिखाये, जिनमें चन्दन रगड़ने से काले दाग पड़ गये थे।[3]नाथ! जो पहले कभी आर्या कुन्ती से अथवा तुम लोगों से भी नहीं डरती थी, वही द्रौपदी आज दासी होकर राजा विराट के आगे भयभीत सी खड़ी रहती है। उस समय मैं सोचती हूँ, ‘न जाने सम्राट मुझे क्या कहेंगे? यह उबटन अच्छा बना है या नहीं।’ मेरे सिवा दूरे कस पीसा हुआ चन्दन मत्स्यराज को अच्छा ही नहीं लगता।

वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन! भामिनी द्रौपदी इस प्रकार भीमसेन से अपने दुःख बताकर उनके मुख की ओर देखती हुई धीरे-धीरे रोने लगी।वह बार-बार लंबी साँसें लेती हुई आँसुओं से गद्गद वाणी में भीमसेन के हृदय को कम्पित करती हुई इस प्रकार बोली- ‘पाण्डुनन्दन भीमसेन! मेंने पूर्वकाल में देवताओं का थोड़ा अपराध नहीं किया है, तभी तो मुझ अभागिनी को जहाँ मर जाना चाहिये, उस दशा में मैं जी रही हूँ’।

वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! तदनन्तर शत्रुहन्ता भीमसेन अपनी पत्नी द्रौपदी के दुबले-पतले हाथों को, जिनमें घड्डे पड़ गये थे, अपने मुख पर लगाकर रो पड़े। फिर पराक्रमी भीम ने उस हाथों को पकड़कर आँसू बहाते हुए अत्यन्त दुःख से पीड़ित हो इस प्राकर कहा।[4]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. महाभारत विराट पर्व अध्याय 20 श्लोक 1-15
  2. और किसी के लिये तो क्या
  3. फिर वह सिसकती हुई बोली-
  4. महाभारत विराट पर्व अध्याय 20 श्लोक 16-29

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